Friday, May 6, 2011

तुलसी का जवाब नहीं

विद्यार्थी जीवन में मैंने तुलसी कृत श्री रामचरित मानस एवं भगवद्गीता का अनेक बार पाठ किया था - बिना किसी शोधपरक उद्देश्य के। बाद में क़ानूनी लेखों और निर्णयों में दिए गए उद्धरणों की पुष्टि करने के क्रम में तथा प्रसंगवश अनेक अन्य शास्त्रों यथा- श्रीमद्भागवत, ब्रह्मसूत्र , वृहदारण्यक एवं अन्य एक सौ आठ उपनिषद् इत्यादि का आद्योपांत पाठ कर डाला। स्वाभाविक रूप से इस क्रम में अनेक आवेशात्मक अनुभव भी होते रहे। किन्तु श्रीमद्भागवत पढ़ते समय भी प्राय: जब किसी गूढ़ एवं वेदान्तीय कथानक में तन्मय जाता तो मुझे मानस की समानार्थी चौपाई याद पड़ती और मेरे मुख से स्फुटित हो जाता - "वाह! तुलसी का जवाब नहीं!"

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