Saturday, December 5, 2009
21. विवाह : दान, याचना व प्रक्रिया
शिव पुराण (इस लिंक/प्रवचन का ट्रैक ९२-९७ ) के अनुसार , देवी पार्वती के तपस्या पूरी होने पर भगवान शिव उनके पास आए । दोनों ने एक दूसरे को पति - पत्नी होने का प्रस्ताव तथा स्वीकृति दिया। तब शिव जी ने पार्वती से अपने साथ चलने के लिए कहा। देवी पार्वती ने कहा - पिछले (सती) जन्म के विवाह में उनके पिता ने उनका हाथ तो शिव जी के हाथ में दिया था किंतु प्रक्रिया अर्थात देवता एवं ग्रह पूजा सम्बन्धी त्रुटि रह गई थी इसलिए वह विवाह सम्बन्ध पूर्णतया सफल नहीं रहा और उनका (सती का ) आत्म दाह पूर्वक दुखद अंत हुआ था । दुबारा वह भूल न हो , इसलिए विवाह सम्बन्धी सभी प्रक्रियाओं , श्रेष्ठजनों का आशीर्वाद ,ग्रह पूजा इत्यादि का सम्यक अनुपालन होना ही चाहिए ।
देवी पार्वती ने शिव जी से कहा कि आप मेरे पिता जी के पास आकर उनसे मेरा हाथ मांगिये । शिव जी ने कहा कि मांगने से व्यक्ति लघुता को प्राप्त हो जाता है । जब देने वाला स्वयं देने का प्रस्ताव करता है तो देने वाला एवं स्वीकार करने वाला दोनों ही श्रेष्ठ समझे जाते हैं। फिलहाल , देवी पार्वती के पिता को इस बात की सूचना देना और उन्हें संतुष्ट तो करना ही था और कन्या के लिए यह कार्य करना शिष्टाचार के अनुरूप नहीं होता, अतएव, इन विशेष परिस्थितियों में देवी पार्वती के दुबारा आग्रह करने पर शिव जी ने इस कार्य को करने का दायित्व अपने ऊपरलिया।
विभिन्न ऋषियों द्वारा अनेक प्रयास एवं कई चक्र के वार्तालाप के उपरांत देवी पार्वती के पिता राजी हुए। तत्पश्चात उन्होंने शिव जी के पास अपनी पुत्री पार्वती की जन्म पत्रिका के साथ विवाह का प्रस्ताव भेजा।
यह सनातन परम्परा है कि कन्या पक्ष वर पक्ष के पास विवाह का प्रस्ताव लेकर जाता है। वर पक्ष कन्या मांगने नहीं जाता। देने वाला कन्या पक्ष ही है और देने वाला निश्चित ही श्रेष्ठ है, यद्यपि कन्या का पिता अपनी कन्या को अपने से श्रेष्ठतर को ही देता है । किंतु भारतीय शिष्टाचार में विनम्रता की पराकाष्ठा है। यहाँ स्वीकार करने वाले को श्रेष्ठ समझा जाता है; यहाँ लेने वाला देने वाले को अनुग्रहीत करता है।
Tuesday, December 1, 2009
२० शासक की पशुपति साधना
वह विधियोगी ही पशुपति है। पशुपति ही सम्राट है । पशुपति पशुओं से द्वेष नहीं करता , उनका पालन व नियमन करता है।
प्रेरणा श्रोत : शुक्ल यजुर्वेद , रूद्र सूक्त एवं तत्सम दृष्टि युक्त अन्य वैदिक वांग्मय ।
(नोट : यह सूत्र केवल आत्मसात करने के लिए है, कृपया इस पर टिप्पड़ी या बहस न करें )
Monday, November 30, 2009
१९ संस्कृत भाषा की विशेषताएँ
संस्कृत भाषा की विशेषताएँ
१) संस्कृत दुनिया की पहली पुस्तक की भाषा है। इसलिये इसे विश्व की प्रथम भाषा मानने में कहीं किसी संशय की संभावना नहीं है।
२) इसकी सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिद्ध है।
३) सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी होने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है।
४) इसे देवभाषा माना जाता है।
५) संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा भी है अतः इसका नाम संस्कृत है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायिनी और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है।
६) शब्द-रूप - विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक या कुछ ही रूप होते हैं, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं।
७) द्विवचन - सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है।
८) सन्धि - संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। संस्कृत में जब दो शब्द निकट आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है।
९) इसे कम्प्यूटर और कृत्रिम बुद्धि के लिये सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है।
१०) शोध से ऐसा पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।
११) संस्कृत वाक्यों में शब्दों को किसी भी क्रम में रखा जा सकता है। इससे अर्थ का अनर्थ होने की बहुत कम या कोई भी सम्भावना नहीं होती। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि सभी शब्द विभक्ति और वचन के अनुसार होते हैं और क्रम बदलने पर भी सही अर्थ सुरक्षित रहता है। जैसे - अहं गृहं गच्छामि या गच्छामि गृहं अहम् दोनो ही ठीक हैं।
भारत और विश्व के लिए संस्कृत का महत्त्व
- संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की माता है। इनकी अधिकांश शब्दावली या तो संस्कृत से ली गयी है या संस्कृत से प्रभावित है। पूरे भारत में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन से भारतीय भाषाओं में अधिकाधिक एकरूपता आयेगी जिससे भारतीय एकता बलवती होगी। यदि इच्छा-शक्ति हो तो संस्कृत को हिब्रू" class="mw-redirect">हिब्रू की भाँति पुनः प्रचलित भाषा भी बनाया जा सकता है।
- हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में हैं।
- हिन्दुओं के सभी पूजा-पाठ और धार्मिक संस्कार की भाषा संस्कृत ही है।
- हिन्दुओं, बौद्धों और जैनों के नाम भी संस्कृत पर आधारित होते हैं।
- भारतीय भाषाओं की तकनीकी शब्दावली भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न की जाती है।
- संस्कृत, भारत को एकता के सूत्र में बाँधती है।
- संस्कृत का प्राचीन साहित्य अत्यन्त प्राचीन, विशाल और विविधतापूर्ण है। इसमें अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, और साहित्य का खजाना है। इसके अध्ययन से ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति को बढ़ावा मिलेगा।
- संस्कृत को कम्प्यूटर के लिये (कृत्रिम बुद्धि के लिये) सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है।
( विकिपीडिया से साभार )