Thursday, December 2, 2010

संविधान चालीसा पर घमासान

एक लोक प्रिय वेब साईट पर मेरे द्वारा लिखी गयी "संविधान चालीसा" के दो शब्दों "रामराज" एवं "हरिजन" पर घमासान लेखयुद्ध चल रहा है । एक खेमा रामराज शब्द को अलोकतांत्रिक एवं नारी तथा दलितों के प्रति अन्यायी और राजशाही का प्रतीक मानते हुए इसे हर हाल में हटाकर इसके स्थान पर लोकराज शब्द प्रयोग करने पर अड़ा हुआ है तो दूसरा इसे लोकराज से अधिक व्यापक एवं आदर्श मानते हुए गाँधी जी के रामराज की परिकल्पना की हिमायत करते हुए इसे उपयुक्त कह रहा है।
मैंने भी स्पष्टीकरण दिया कि शब्द "रामराज्य" रामायण के राजा राम की भक्ति का प्रतीक मात्र नहीं है अपितु, यह एक मुहावरा है जो आदर्श राज्य का प्रतीक है - जहाँ सब लोग सुखी, साधन संपन्न , निरोग होवें और परस्पर मैत्री पूर्वक रहें, सर्वत्र सदाशयता हो, विवाद , मुकदमेबाजी का नाम न हो इत्यादि... ।उक्त परिचर्चा में "रामराज " के पक्षधर मित्रों का यह कहना सही है कि "रामराज" शब्द उसी प्रकार एक पंथ निरपेक्ष मुहावरा है जैसे "रामबाण , "लक्ष्मणरेखा", "इंशाअल्ला" इत्यादि।
मेरा यह भी मानना है कि लोकराज शब्द रामराज में आवश्यक रूप से में समाहित है किन्तु आवश्यक नहीं कि लोकराज में रामराज के गुण मिल सकें। पुनश्च लोकतंत्र हमारे संविधान में भी अनेक विशेषताओं में से एक है , समाजवाद , गणतंत्र इत्यादि अन्य विशेषताएं है। रामराज की अवधारणा में में ये सभी विशेषताएं शामिल है और इसके आलावा भी वह सब शामिल है जिसे पाने की कल्पना हमारे संविधान में की गयी है ।

जो लोग शब्द राम राज पर आपत्ति कर रहे हैं वही हरिजन शब्द को भी अस्वीकार कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह शब्द गांधी जी का हरिजनों के प्रति एक छलावा था । इनका यह भी कहना है कि गांधी जी को महात्मा गांधी के बजे हरिजन गांधी कहा जाना चाहिए , वे हिन्दू धर्म और वर्ण व्यवस्था के हिमायती थे और महात्मा कहलाने के योग्य नहीं थे। इन लोगों ने चालीसा में हरिजन के स्थान पर "जन-जन " शब्द प्रयोग करने की सलाह दी है। मेरी विवशता यह है कि मुझे चार अक्षरों का एक शब्द चाहिए जो उन लोगों के लिए प्रयुक्त किया जा सके जिन्हें हमारा संविधान अनुसूचित की श्रेणी में रखते हुए आरक्षण प्रदान करता है, क्योकि हरिजन शब्द मैंने इसी सन्दर्भ में प्रयुक्त किया है- "हरिजन हित उपबंध विशेषा ..."। जाहिर है कि जन-जन के लिए विशेष उपबंध नहीं किया जा सकता।

युद्ध देखने के लिए लायर्स क्लब इंडिया.कॉम पर यह कड़ी देखें:
http://www.lawyersclubindia.com/forum/Re-Re-Re-Re-Re-Re-LCI-as-Parliament--28005.asp?1=1&offset=1

http://www.lawyersclubindia.com/forum/26th-November-The-Constitution-Day-27634.asp

http://www.lawyersclubindia.com/forum/Congratulations-to-Nitish-Kumar-27589.asp

http://www.lawyersclubindia.com/forum/Some-features-of-Ram-rajya-27801.asp

अब तलाश है मुझे दो शब्दों की - एक, जो रामराज की पूरी संकल्पना को या उससे अधिक अच्छा कुछ हो सके तो उसको समाहित करता हो किन्तु किसी धर्म सम्प्रदाय , दार्शनिक, राजनीतिक चिन्तक या राजनितिक दल द्वारा प्रयुक्त न किया गया हो और दूसरा, जो अनुसूचित एवं पिछड़े वर्ग को इंगित करता हो किन्तु किसी दार्शनिक , चिन्तक, नेता, राजनीतिक दल इत्यादि द्वारा प्रयुक्त न हो।

Thursday, November 25, 2010

२६ नवम्बर, संविधान दिवस

( भारत के संविधान में देवत्व का आभास करते हुए मैंने "संविधान चालीसा" लिखी है और इसके द्वारा भारतीय संविधान के मूल दर्शन को इंगित करने का प्रयास किया हैचालीसा की पंक्तियाँ लगभग संविधान के अध्यायों के संयोजन के क्रम में हैं। दिनांक २६ नवम्बर १९४९ को हमने संविधान को अधिनियमित एवं आत्मार्पित किया था। उसी के वर्ष गांठ पर आज संविधान चालीसा को ब्लॉग पर पुन: प्रस्तुत कर रहा हूँ। - डा० वसिष्ठ नारायण त्रिपाठी)
संविधान चालीसा :
जय
भारत दिग्दर्शक स्वामी जय जनता उर अंतर्यामी
जनमत अनुमत चरित उदारा सहज समन्जन भाव तुम्हारा॥
सहमति सन्मति के अनुरागी दुर्मद भेद - भाव के त्यागी॥
सकल विश्व के संविधान से। सद्गुण गहि सब विधि विधान से॥
गुण सर्वोत्तम रूप बृहत्तम। शमित बिभेद शक्ति पर संयम ॥
गहि गहि राजन्ह एक बनावा । संघ शक्ति सब कंह समुझावा

देखहु
सब जन एक समाना। असम विषम कर करहु निदाना॥
करि आरक्षण दीन दयाला। दीन वर्ग को करत निहाला॥
हरिजन हित उपबंध विशेषा। आदिम जन अतिरिक्त नरेशा

बालक नारि निदेश सुहावन। जेहि परिवार रुचिर शुभ पावन॥
जग
मंगल गुण संविधान के। दानि मुक्ति,धन,धर्म ध्यान तें॥
वेद, कुरान, धम्म, ग्रन्थ के। एक तत्व लखि सकल पंथ के॥
सब स्वतंत्र बंधन धारन को। लक्ष्य मुक्ति मानस बंधन सो॥
पंथ रहित जनहित लवलीना। सकल पंथ ऊपर आसीना॥
यह उपनिषद रहस्य उदारा। परम धर्म तुमने हिय धारा॥
नीति निदर्शक जन सेवक के। कर्म बोध दाता सब जन के॥
मंत्र महामणि लक्ष्य ज्ञान के। सब संविधि संशय निदान के॥
भारत भासित विश्व विधाताजग परिवार प्रमुख सुखदाता
**************
रचि विधान संसद विलग, अनुपालक सरकार।
आलोचन गुण दोष के , न्याय सदन रखवार॥
मित्र दृष्टि आलोचना , न्याय तंत्र सहकार॥
रहित प्रतिक्रिया द्वेष से, चितवत बारम्बार॥
************
देत स्वशासन ग्राम ग्राम को। दूरि बिचौधन बेईमान को॥
दे स्वराज आदिम जनगण को। सह विकास संस्कृति रक्षण को॥
बांटि विधायन शक्ति साम्यमय। कुशल प्रशासी केंद्र राज्य द्वय॥
कर विधान जनगण हितकारी। राजकोष संचय सुखकारी॥
राज प्रजा सब एक बराबर। जब विवाद का उपजे अवसर॥
*********
जो जेहि भावे सो करे, अर्थ हेतु व्यवसाय।
सहज समागम देश भर, जो जंह चाहे जाय॥
********
सबको अवसर राज करन को। शासन सेवक जनगण मन को॥
सब नियुक्ति सेवा विधान से। देखि कुशल निष्पक्ष ध्यान से॥
पांच बरस पर पुनि आलोचन। राज काज का पुनरालोकन॥
जनता करती भांति-भांति से। वर्ग-वर्ग से जाति- जाति से॥

अबुध दमित जन आदि समाजा। बिबुध विशेष बिहाइ बिराजा॥
भाषा भनिति राज व्यवहारी। अंग्रेजी-हिंदी अवतारी॥
विविध लोक भाषा सन्माना। निज-निज क्षेत्रे कलरव गाना॥
राष्ट्र सुरक्षा संकट छाये। सकल शक्ति केंद्र को धाये॥
राज्य चले जब तुझ प्रतिकूला। असफल होय तंत्र जब मूला॥
आपद काल घोषणा करते। शक्ति राज्य की वापस हरते॥
अति कठोर नहिं अति उदार तुम। जनहित में संशोधन सक्षम॥
विविध राज्य उपबंध विशेषा। शीघ्र हरहु कश्मीर कलेशा॥

दुष्ट विवर्धित लुप्त सुजाना। आडम्बर ग्रसित सदज्ञाना ॥
राम राज लगि तुम अवतारा। लक्षण देखि वसिष्ठ बिचारा॥
जिनको जस आदेश तुम्हारे। सो तेहि पालन सकल सुखारे॥
समता
प्रभु की उत्तम पूजा। तुम्हरो कछु उपदेश दूजा॥
सो तुम होउ सर्व उर वासी। पीर हरहु हरि जन सुखराशी॥
***********
यह चालीसा ध्यानयुत, समझि पढ़े मन लाय॥
राज, धर्म, धन, सुख मिले, समरसता अधिकाय

*****************************************
॥ इति श्री भारत भाग्यप्रदीपिका संविधानसारतत्वरुपिका च संविधान चालीसा सम्पूर्णा ॥

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Sunday, October 10, 2010

Argala Strotram - A Key for Good Governance

This message is being posted on the occasion of Navraatri.
Being free from malice is the first eligibility to attain and sustain the power
.
We can learn this from Durga Saptshatee which is chanted to please the Goddess of Power. Chanting of the Argala strotram is a pre-requisite for chanting the main Saptashatee, and in Argala strotram prayer for elimination of malice has been repeated 22 times. Argala means - fetter or bolt of the door. Procedure of chanting Argala strotram is prescribed to open the door of the Power.
Most of worshipers who chant the verses of Durga Saptashatee, necessarily chant the Argala strotram. One of the prayers in this strotra stands for elimination of malice. The verse is:
"रूपं देहि , जयं देहि , यशो देहि , द्विषो जहि .” This prayer has been repeated 21 times (verses 3 to 23).
The dominant idea and object in the shakti pooja is to attain power and victory Commonly, it is interpreted that ‘
द्विषो जहि ’ means elimination of enemies or those who are malicious to me / the worshiper. Further, this interpretation is natural for a human mind while worshiping and meditating for attaining the power. But, I think, this interpretation is wrong and dangerous to worshiper himself because, when he is thinking about elimination of some others, he himself is malicious. Neither there is any word in this verse nor is there any indication by context, showing that user of the द्विषो जहि weapon is excluded from it’s target area. Wordings are simple and clear but psychologically, there would be hardly any likelihood that the worshiper would think so in the zeal of attaining the power. To my mind ‘द्विषो जहि ’ in the context of persons, simply means - ‘ O devi ! eliminate malicious deeds’ and in the context of thought process, thought vibrations and social relations it means elimination of hostility. This point is more explicit in verse 13 of the same strotra where it is prayed that:
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकै:, रूपं देहि , जयं देहि , यशो देहि , द्विषो जहि .”
Here,
विधेहि द्विषतां नाशं is also commonly interpreted in same manner and it may sound like praying for elimination of those who are thinking maliciously against the worshiper But, the user/worshiper also is not beyond the range of this weapon It simply means that ‘O Devi, provide for elimination of those who are thinking and acting maliciously’ I would submit my perception in Hindi on both prayers thus- "हे देवि ! द्वेष का नाश करो, द्वेष युक्त कर्मों का नाश करो तथा द्वेष करने वालों का नाश करो और इन सबके विनाश हेतु उच्च शक्ति से युक्त विधान करो।" Interpreting otherwise would be twisting the simple words that would not be free from risk in shakti upasna.
Thus first eligibility criteria for Devi upasna is that a person must be clean hearted and free from malice. It is not only prescribed but has been reminded and warned 22 times at the door (argala) itself.
Application of above prayer to Law and administration : I have tried to submit in above lines that, if the worshiper is not clean hearted and malice free, then he is asking for destruction of himself. Now, the main object of Devi pooja is to obtain power, strength and energy. When a person is granted power to do something, it is presupposed that he will use the power without malice. A malicious action is liable to be set aside. By
द्विषो जहि we pray for nullification of malicious actions and hostility, and by विधेहि द्विषतां नाशं we pray for making provisions for destruction of those who would be thinking and acting maliciously. Thus, the power can not stand with malice. If an authority has acted maliciously, the action will be quashed or nullified and if he continuously does so, he is making arrangement for destruction of his power as well as himself . It is also significant that in the argala strotra the prayer ‘द्विषो जहि’ has occurred 21 times the prayer विधेहि द्विषतां नाशं has occurred once in verse 13 i.e. in the middle of verses 3 to 23. The frequency of prayers signifies that the former is indicative of many malicious actions of a person and the later is indicative of that person. The first eligibility criteria for having power is that a person must be clean hearted and free from malice. It is not only prescribed but has been reminded and warned 22 times at the door (argala) of the house of the power.
Let us be clean hearten and free from malice before attaining and exercising the power.

Thursday, September 2, 2010

५७. संविधान चालीसा

( भारत के संविधान में देवत्व का आभास करते हुए इस "संविधान चालीसा" की रचना की गयी है और इसके द्वारा भारतीय संविधान के मूल दर्शन को इंगित करने का प्रयास किया गया है तथा समता एवं बापू के रामराज्य की अवधारणा पर विशेष बल दिया गया है। चालीसा की पंक्तियाँ लगभग संविधान के अध्यायों के संयोजन के क्रम में हैं- डा० वसिष्ठ नारायण त्रिपाठी)

संविधान
चालीसा :


जय
भारत दिग्दर्शक स्वामी जय जनता उर अंतर्यामी
जनमत अनुमत चरित उदारा सहज समन्जन भाव तुम्हारा॥
सहमति सन्मति के अनुरागी दुर्मद भेद - भाव के त्यागी॥
सकल विश्व के संविधान से। सद्गुण गहि सब विधि विधान से॥
गुण सर्वोत्तम रूप बृहत्तम। शमित बिभेद शक्ति पर संयम ॥
गहि गहि राजन्ह एक बनावा । संघ शक्ति सब कंह समुझावा

देखहु
सब जन एक समाना। असम विषम कर करहु निदाना॥
करि आरक्षण दीन दयाला। दीन वर्ग को करत निहाला॥
हरिजन हित उपबंध विशेषा। आदिम जन अतिरिक्त नरेशा

बालक नारि निदेश सुहावन। जेहि परिवार रुचिर शुभ पावन॥
जग
मंगल गुण संविधान के। दानि मुक्ति,धन,धर्म ध्यान तें॥
वेद, कुरान, धम्म, ग्रन्थ के। एक तत्व लखि सकल पंथ के॥
सब स्वतंत्र बंधन धारन को। लक्ष्य मुक्ति मानस बंधन सो॥
पंथ रहित जनहित लवलीना। सकल पंथ ऊपर आसीना॥
यह उपनिषद रहस्य उदारा। परम धर्म तुमने हिय धारा॥
नीति निदर्शक जन सेवक के। कर्म बोध दाता सब जन के॥
मंत्र महामणि लक्ष्य ज्ञान के। सब संविधि संशय निदान के॥
भारत भासित विश्व विधाताजग परिवार प्रमुख सुखदाता
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रचि विधान संसद विलग, अनुपालक सरकार।
आलोचन गुण दोष के , न्याय सदन रखवार॥
मित्र दृष्टि आलोचना , न्याय तंत्र सहकार॥
रहित प्रतिक्रिया द्वेष से, चितवत बारम्बार॥
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देत स्वशासन ग्राम ग्राम को। दूरि बिचौधन बेईमान को॥
दे स्वराज आदिम जनगण को। सह विकास संस्कृति रक्षण को॥
बांटि विधायन शक्ति साम्यमय। कुशल प्रशासी केंद्र राज्य द्वय॥
कर विधान जनगण हितकारी। राजकोष संचय सुखकारी॥
राज प्रजा सब एक बराबर। जब विवाद का उपजे अवसर॥
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जो जेहि भावे सो करे, अर्थ हेतु व्यवसाय।
सहज समागम देश भर, जो जंह चाहे जाय॥
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सबको अवसर राज करन को। शासन सेवक जनगण मन को॥
सब नियुक्त सेवा विधान से। देखि कुशल निष्पक्ष ध्यान से॥
पांच बरस पर पुनि आलोचन। राज काज का पुनरालोकन॥
जनता करती भांति-भांति से। वर्ग-वर्ग से जाति- जाति से॥

अबुध दमित जन आदि समाजा। बिबुध विशेष बिहाइ बिराजा॥
भाषा भनिति राज व्यवहारी। अंग्रेजी-हिंदी अवतारी॥
विविध लोक भाषा सन्माना। निज-निज क्षेत्रे कलरव गाना॥
राष्ट्र सुरक्षा संकट छाये। सकल शक्ति केंद्र को धाये॥
राज्य चले जब तुझ प्रतिकूला। असफल होय तंत्र जब मूला॥
आपद काल घोषणा करते। शक्ति राज्य की वापस हरते॥
अति कठोर नहिं अति उदार तुम। जनहित में संशोधन सक्षम॥
बिबिध राज्य उपबंध विशेषा। शीघ्र हरहु कश्मीर कलेशा॥

दुष्ट विवर्धित लुप्त सुजाना। आडम्बर ग्रसित सदज्ञाना ॥
राम राज लगि तुम अवतारा। लक्षण देखि वसिष्ठ बिचारा॥
जिनको जस आदेश तुम्हारे। सो तेहि पालन सकल सुखारे॥
समता
प्रभु की उत्तम पूजा। तुम्हरो कछु उपदेश दूजा॥
सो तुम होउ सर्व उर वासी। पीर हरहु हरि जन सुखराशी॥
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यह चालीसा ध्यानयुत, समझि पढ़े मन लाय॥
राज, धर्म, धन, सुख मिले, समरसता अधिकाय

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॥ इति श्री भारत भाग्य प्रदीपिका संविधानसारतत्वरुपिका च संविधान चालीसा सम्पूर्णा ॥

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Saturday, July 24, 2010

समता ही स्थिरता का आधार है

विष्णु पुराण १। १७ । ९९ में कहा है-
"सर्वत्र दैत्या: समतामुपेत समत्वमाराधनमच्युतस्य " । लौकिक अर्थ में अच्युत उसे कहते हैं जो कभी च्युत न हो , जिसकी अवनति न हो, जिसका क्षरण न हो। अतएव, स्थिर सत्ता, समृद्धि एवं शक्ति को प्राप्त करने तथा प्राप्त होने पर उसे अडिग बनाये रखने के लिए सर्वत्र सबके प्रति समता का व्यवहार ही सर्वोत्तम साधन है। यही अच्युत शक्ति की सच्ची आराधना है।

Tuesday, June 15, 2010

सर्वान्तर दर्शन

श्रीमद्भागवत में वर्णित गजेन्द्र मोक्ष के दूसरे श्लोक में लिखा है : "यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं इदं स्वयं, यो अस्मात परस्मात्च, परस्तं प्रपद्ये स्वयंभुवं"। किसी ने इसका हिंदी काव्य रूपांतर किया है - "जिसमें जिससे जिसके द्वारा जिसकी सत्ता जो स्वयं वही ......."।
आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वान्तर या अभेद दर्शी की भाव भूमि में तथा लौकिक स्तर पर समतामूलक समाज की कल्पना करते हुए मैं भी सोचता हूँ : सबका सबमें सबके द्वारा सबकी सत्ता सब स्वयं वही

Tuesday, May 4, 2010

निर्भय समाज

राजनितिक दलों को बाहुबलियों से मुक्त करना कठिन है, किन्तु असंभव नहींसदाचार की दृढ़ इच्छा शक्ति से कदाचार की छुद्र संस्कृति शीघ्र ही नष्ट होगीभय पर आधारित राजनीति टिकाऊ नहीं हो सकतीथोड़ा पहले या बाद में, सभी राजनितिक दल अपराधियों से पीछा छुडायेंगेफिर जनता के सामने दलों की नीतियों के विकल्प होंगे - उन विकल्पों में भय का कोई स्थान नहीं होगा

Monday, April 5, 2010

उसे जानो जो सब जानता है !

मैं उसे जानने का प्रयत्न करता हूँ जो सब कुछ जानता है, सबको जानता है। मुझे विश्वास है कि उसे जानने के क्रम में मैं सब कुछ जान जाऊंगा , सबको जान जाऊंगा !

Monday, March 22, 2010

क्या न्याय पराधीन है ?

क्षमा करें ! यह सन्देश समीक्षाधीन है। समीक्षा के उपरांत पुन: प्रकाशित किया जायेगा।

Friday, March 19, 2010

न्याय चेतन है, मूर्ति जड़ है

क्षमा करें ! सन्देश समीक्षाधीन है , समीक्षा के पश्चात पुन: प्रकाशित किया जायेगा।

Thursday, March 18, 2010

पञ्चदिक् मधु

छान्दोग्य उपनिषद् में संकेतित मधु विद्या - क्षमा करें, अति गूढ़ एवं अनुभव मूलक होने के कारण छिपाया गया। फ़िलहाल वह मधु , वह मधुकर, वह पुष्प, वह छत्ता और छत्ते का वह आधार सभी सर्वान्तर हैं। वह सर्वान्तर आप हैं, मैं हूँ ।

Wednesday, March 17, 2010

सुनीति एवं सुरुचि - न्यायिक सन्दर्भ में

श्रीमद्भागवत महापुराण , विष्णु पुराण व अन्य पुराणों में ध्रुव की कथा वर्णित है (दिए हुए लिंक से कथा सुन सकते हैं)। राजा उत्तानपाद की दो पत्नियाँ थी जिनका नाम था - सुनीति और सुरुचि राजकुमार ध्रुव जिन्हें सनातन पंथी आज भी ध्रुवतारे के रूप में विद्यमान समझते हैं, सुनीति के पुत्र थे । राजा उत्तानपाद सुरुचि को अधिक प्रेम करते थे और सुनीति की उपेक्षा करते थे। वस्तुत:, सुनीति और सुरुचि केवल पौराणिक कथा में ही नहीं अपितु व्यवहारिक जीवन के हर क्षेत्र में एक दूसरे की सौतें हैं दोनों एक साथ नहीं रह सकतीं। जब हम अपनी रूचि के अनुरूप (सुरुचिपूर्ण = whimsical) अर्थात मनमौजी आचरण करते हैं तो वह श्रेष्ठनीति (सुनीति = good policy) के प्रतिकूल होता है।
सामाजिक व्यवहार, विशेषतया शासन-प्रशासन के परिप्रेक्ष्य में इन दो नामों का निहितार्थ यह है कि, सुनीति (Good policy) पर सुरुचि (Whim) को प्रभावी न होने दिया जाय ।
नियम - कानून एवं निर्णय भी सुनीतियुक्त होंगे तो कल्याणकारी होंगे, सुरुचियुक्त होंगे तो विनाशकारी होंगे। बहुधा देखने में आता है कि हमारे न्यायाधीश भी अपने "न्यायिक संस्था " के स्वरुप से विचलित होकर "व्यक्ति न्यायाधीश " के स्वरुप में अवस्थित हो जाते हैं , फलत: एक ही प्रकार के विवादों में भिन्न न्यायिक निर्णय व आदेश पारित होते हैं । इस प्रवृत्ति से न्यायलय के प्रति न्यायार्थियों की आस्था क्षीण होती है। यह प्रवृत्ति न्यायपालिका में एक आत्मघाती मनोविकार है, आंतरिक शत्रु है



Tuesday, March 16, 2010

नवरात्र की विशेष प्रस्तुति - ब्रह्मांडीय संगीत- संस्कृत पञ्चचामर छन्द में

नवरात्रि के अवसर पर एक पुरानी अधूरी रचना पुन: प्रसारित कर रहा हूँ ।
किशोरावस्था में मुझे एक बार ऐसी अनुभूति हुयी कि, कहीं दूर अन्तरिक्ष में एक दिव्य शक्ति धीरे-धीरे अपना ब्रह्माण्डीय नूपुर झनका रही है और उसी के स्वर तरंगों से समूचे चराचर जगत का सञ्चालन हो रहा है ; यह सारा ब्रह्माण्ड उन्हीं स्वर तरंगों से उत्पन्न हुआ है , उसी से विस्तारित हो रहा है और उसी में लीन भी हो रहा है । उत्पत्ति और लय का क्रम निरंतरित है। इसी भावानुभूति में यह श्लोक स्फुटित हुए थे, जो अधूरी स्मृति के आधार पर यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं । व्याकरण एवं काव्य सम्बन्धी त्रुटियों के सुधार सुधी जनों से सादर एवं साभार आमंत्रित हैं । फिलहाल , टंकड़ सम्बन्धी विशेज्ञता के अभाव में कुछ त्रुटियां प्रत्यक्ष हैं जिनका सुधार किसी कुशल व्यक्ति की सहायता से शीघ्र किया जायगा ।
- डॉ वसिष्ठ नारायण त्रिपाठी
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द्वेषक्लेशहारिनणीमनन्तलोकचारिणीम्मनोविनोदकारिणीं सदामुदाप्रसारिणीम्।
पापतापनाशिनीमज्ञानज्ञाननवर्तिनीं नौमि पादपंकजं सुभक्तश्रेयकारिणीम्॥ १॥ 
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विभागभागनूपुरंत्रिलोकरागरंजितंसन्चारितम्लयम्प्रियं जगच्चमोहितंकृतम्।
झनन्झनन्झनन्नवीनचेतना प्रवाहितं झकारशक्तिचालितं दधाति यो दधामि तम्॥ २॥
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वेदपाठ नाकृतं न धर्म धारितं मया न योगयज्ञयुक्तिमान्नमामि केवलं सदा।
नमन्नमन्नमन्नमन्निरोध चित्तवृत्ति मे भवेद्देवि देहि मे भवं भयात् तत्पदम्॥ ३॥
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अनामयं निरामयं अरूपमं निरुपमं, शिवं शिवं शिवं शिवे करोति या सदाशिवम् ।
तयाशिवंमयाशिवं सुशब्दशक्तिसाशिवा विभातुपातु नो धियं जगत्शिवाय मे शिवम्॥ ४॥
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Saturday, March 6, 2010

आचार प्रेरको राजा....

जैसा राजा वैसी प्रजा भगवद्गीता में कहा है -" यद्यद्याचरते श्रेष्ठस्ततदेवेतरो जना:, यत प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते"- अर्थात श्रेष्ठ लोग (वर्तमान सन्दर्भ में नेता ) जैसा आचरण करते हैं उसी का अनुकरण जनता भी करती है शुक्र नीति में भी कहा है- "आचार प्रेरको राजा ...."
अच्छाई बुराई दोनों सामान्यतया शासक वर्ग से ही उत्पन्न होती हैं क़ानून की वास्तविक शक्ति अधिनियम के कठोर प्रावधानों में नहीं होती अपितु, यह बात अधिक महत्वपूर्ण होती है कि क़ानून की रगों में किसका रक्त प्रवाहित हो रहा है और इसके पोषणकर्ता, व्याख्याता तथा प्रयोक्ता कौन हैं

Sunday, February 28, 2010

संसाधन सुलभ हैं, इनका प्रयोक्ता ही दुर्लभ है

अमंत्र्यमक्षरम नास्ति नास्ति मूलमनौसधम
अयोग्य: पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभ:
मंत्र विहीन कोई अक्षर नहीं होता, किसी भी लता-गुल्म की जड़ औषध विहीन नहीं है तथा कोई व्यक्ति अयोग्य नहींहोता। इन सबों का सही ढंग से प्रयोग करने वाला व्यक्ति ही दुर्लभ होता है। - शुक्रनीति: /१२६

Sunday, February 14, 2010

स्वर का सतत चिंतन करें

सब कुछ ब्रह्ममय है, ब्रह्म का ही रूप है।
नादब्रह्म निर्विवाद रूप से सर्वमान्य है।
स्वर ही सृजनकर्ता है, स्वर ही संहारक है
समाज में अधिकांश विवाद स्वर तथा शब्द के सकारात्मक तालमेल होने के कारण से होते हैं।
अतएव, स्वर की उपासना करें, स्वर का सतत चिंतन करें।


एक कलाकार द्वारा गाये हुए इस मधुर गीत का आस्वादन करे:

"स्वर में स्वयं बसें भगवान् ,
स्वर ईश्वर है, ईश्वरीय वरदान।

ब्रह्म सहोदर शब्द कहाए, शब्दों से जब स्वर मिल जाये,
मन वीणा तब पुलकित होकर , करत प्रभु का गान
स्वर में स्वयं बसें भगवान् ॥

जब बसंत ऋतू राग सुनाये, स्वर सुरभित अनुराग लुटाये ,
स्वर साधक के सहज स्वरों से, जागृत हो पाषण।

स्वर में स्वयं बसें भगवान्॥

स्वर चेतन हर हृदय जगाये, स्वर संजीवन अमर बनाए,
स्वर से रहा जो वंचित जग में, वो नर है निष्प्रान।

स्वर में स्वयं बसें भगवान्॥"

विधि सार रूप से अनादि है

हम किसी मत , सिद्धांत या कानून का प्रादुर्भाव किसी समय में और किसी संस्था या व्यक्ति द्वारा किया हुआ जानते हैं। किन्तु, वस्तुत: यह उद्भूत नहीं होता अपितु नवीकृत होता है या इसकी पुनर्प्राप्ति होती है। विधि सार रूप से शाश्वत है । यह पहले भी रही है और सदैव रहेगी। केवल इसका प्रारूप बदलता रहता है।

Friday, February 12, 2010

निश्चय ब्रह्म

यह सारा जगत निश्चय ब्रह्म ही है। यह निश्चय से ही उत्पन्न होने वाला , निश्चय में ही लीन होने वाला और निश्चय में ही चेष्टा करने वाला है; ऐसा समझते हुए शांत होकर निश्चय की उपासना करे। पुरुष निश्चय ही निश्चयात्मक है। इस जगतमें पुरुष जैसे निश्चय वाला होता है वैसा ही देहावसान के बाद हो जाता है।* अतएव, निश्चय ही निश्चय करना चाहिए। (छान्दोग्य उपनिषद् /१४/- शाण्डिल्य विद्या)

अतएव, हम शुभ निश्चय वाले हों। हमारे शुभ निश्चय अखिल विश्व में फैलें। सारे विश्व से शुभ निश्चय हमारे पास आवें।
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* स्थित्वास्यामन्तकालेअपि ब्रह्मनिर्वाणमिच्छति - गीता २/७२; अन्यत्र भी लिखा है- अन्ते मति: सा गति: ।
गीता
में "संशयात्मा विनश्यति" (४/४०) कहते हुए सर्वत्र "निश्चय " का ही प्रतिपादन किया गया है, यथा - तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चय: (२/३७), निश्चयेन योक्तव्यो योगोअनिर्विन्न्चेतसा ( ६/२३), संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय: (९/१२)।

रूद्र हृदयोपनिषद

उपलब्द्ध १०९ उपनिषदों में से एक रूद्र हृदयोपनिषद है यह उपनिषद् परमात्मा शिव को केंद्र में रखकर समस्तदेवों में शिव के ही व्याप्त होने की बात समझाते हुए वहुत ही तार्किक रूप से पंथ समन्वय करता है।इस उपनिषद् के मुख्य अंशों का हिंदी अनुवाद आज महाशिवरात्रि के अवसर पर यहाँ प्रस्तुत है :
शुक देव जी के प्रश्न पर व्यास जी कहते हैं -
भगवान रूद्र सब देवों में निवास करते हैं।
जो गोविन्द को नमस्कार करते हैं उनका नमस्कार भगवान शंकर तक स्वयं ही पहुँच जाता है। जो भगवान विष्णुकी पूजा करते है वे मानों वृषध्वज की ही पूजा करते है।
जो भगवान रूद्र से द्वेष करने वाले है, वे जनार्दन प्रभु के प्रिय कभी नहीं हो सकते।* जो रूद्र के ज्ञाता नहीं हैं, वे केशव के भी ज्ञाता नहीं हो सकते। रूद्र ही जीव के प्रवर्तक बीज हैं और बीज की योनि रूप जनार्दन हैं।
जो रूद्र हैं वही ब्रह्मा हैं, जो ब्रह्मा हैं वही अग्नि हैं। यह अग्नि-सोमात्मक जगत भी रूद्र ही है। सृष्टि में जितने प्राणी पुल्लिंग रूप से हैं वे सभी रूद्र हैं तथा जितने स्त्रीलिंगात्मक देहधारी हैं वे उमा हैं। अव्यक्त संसार रूद्र का रूप और व्यक्त संसार भगवती उमा का रूप है। जो उमा और शंकर के इस योग को जानता है वह योगी विष्णु कहलाता है। जो विष्णु को नमस्कार करते हैं वे आत्मा , परमात्मा तथा अंतरात्मा अर्थात त्रिविध आत्मा के ज्ञाता होकर परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।
सब प्राणियों के आत्मा विष्णु हैं, अंतरात्मा ब्रह्मा हैं और परमात्मा महेश्वर हैं।
कार्य रूप विष्णु, क्रिया रूप ब्रह्मा और कारण रूप रूद्र हैं।
इस प्रकार भगवन रूद्र ने ही प्रयोजन के अनुसार अपने तीन रूप धारण किये हैं। जो ज्ञानी रूद्र के नाम का जप करता है वह सभी देवताओं के नाम के जप का फल पाकर सब पापों से छूट जाता है।

प्रार्थना
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रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नम:
रुद्रो ब्रह्मा उमा वाणी
तस्मै तस्यै नमो नम:
रुद्रो विष्णुरुमा लक्ष्मी तस्मै तस्यै नमो नम:
रुद्रो सूर्य उमा छाया तस्मै तस्यै नमो नम:
रुद्रो सोम उमा तारा तस्मै तस्यै नमो नम:
रुद्रो दिवा उमा रात्रिस्तस्मै तस्यै नमो नम:
रुद्रो यज्ञ उमा वेदिस्तस्मै तस्यै नमो नम:
रुद्रो वह्निरुमा स्वाहा तस्मै तस्यै नमो नम:
रुद्रो वेद उमा शास्त्रं तस्मै तस्यै नमो नम:
रुद्रो वृक्ष उमा वल्ली तस्मै तस्यै नमो नम:
रुद्रो गंध उमा पुष्पं तस्मै तस्यै नमो नम:
रूद्र: अर्थ अक्षर: सोमा तस्मै तस्यै नमो नम:
रुद्रो लिंगमुमा पीठं तस्मै तस्यै नमो नम:

सर्वदेवात्मकं रुद्रं नमस्कुर्यात पृथक पृथक।
एभिर्मन्त्रपदैरेव नमस्यामीश पार्वती।
यत्र यत्र भवेत् सार्धमिमं मंत्रमुदीरयेत ।
ब्रह्महा जलमध्ये तु सर्व पापै: प्रमुच्यते।।


उस ब्रह्म को जो जान लेता है वह सब कुछ का ज्ञाता हो जाता है क्योकि उससे भिन्न कुछ है ही नहींयह सब उसी का रूप है
इस शरीर रूपी वृक्ष में जीव और ईश्वर रूप दो पक्षी रहते है। इनमें जीव रूप पक्षी स्वकृत कर्मों का फल भोगता है परन्तु ईश्वर उसके कर्मफल भोग के साक्षी स्वरुप प्रकाशित रहता है, वह कर्म का फल नहीं भोगता वस्तुत:, मायाके द्वारा ही जीव और ईश्वर के भेद की कल्पना हुई है। यथार्थ में तो चिन्मय जीव स्वयं ही साक्षात् ईश्वर है।चिदाकारता से कोई भेद नहीं हो सकता। भेद दृष्टि जड़ता से उत्पन्न होती है। ऋषिगण परमात्मा मैं ही हूँ, ऐसा अनुभव करके शोक से छूट जाते हैं। जो सिद्ध पुरुष आत्मा के स्वरुप का ऐसा ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं, वे पूर्णता को प्राप्त है और कहीं आते- जाते नहीं। जैसे परिपूर्ण आकाश कहीं जाता नहीं, वैसे ही आत्म तत्त्व का ज्ञाता महात्मा भी कहीं नहीं जाता है। जो उस परब्रह्म का ज्ञाता है वह सच्चिदानन्द रूप में स्थित होकर स्वयं ब्रह्म हो जाता है।
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* शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहि सपनेहु नहिं पावा॥ (मानस)






Thursday, February 11, 2010

श्मशान परम शुद्ध है

क्या आपने गौर किया?- श्मशान वह स्थान है, जहाँ जन्म होता है मृत्यु। यह जीवन - मृत्यु से परे, अर्थात मोक्ष क्षेत्र है।
यह परम शुद्ध, निर्लिप्त निर्विकार है। यह शुद्ध न्यायाधीश है, इसका तो जीवन से कोई वास्ता है मृत्यु से।

Wednesday, February 10, 2010

मुक़दमे को मार डालो


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
मुकदमों तथा मुकदमेबाजी को कम करने के जितने भी उपाय किये जा रहे हैं वे मुकदमों की बढ़ती तादात के सामने बौने साबित हो रहे हैं। जाने कितने लोग न्याय अंतिम निर्णय की आस में जीवन बिता देते है, उनकी अगली पीढ़ी का भी जीवन बीत जाता है। विशेषतया, भाई बंधुओं के बीच मुक़दमेबाजी में तो हर कोई हारता है, वास्तव में दोनों ही पक्ष हारते है। अंतिम निर्णय अर्थात मुकदमेबाजी के अवसान पर जीतने वाला भी अपनी बर्बादी की तुलना में कुछ नहीं पाता मुकदमेबाजी को कम करने के लिए केवल सरकारी प्रयास से समस्या का निदान संभव नहीं है।
विद्वेष और मुकदमेबाजी की मानसिकता के विरुद्ध हमारा नारा है:

"मुक़दमे ने तुमको मारा, इस मुक़दमे को

मार
डालो !"

Saturday, February 6, 2010

वर्तमानोपनिषद


हम वर्तमान को पकड़ लें तो भविष्य को नियंत्रित कर सकते हैं और भूत का शोधन कर सकते हैं
हम वर्तमान को जान लें तो भविष्य एवं भूत का स्वरुप स्पष्ट हो जायेगा

वर्तमान
को जानने से सब कुछ जाना हुआ हो जाता है।

योगी वर्तमान में स्थित रहता है, इसीलिए त्रिकालज्ञ होता है।
ध्यान
तथा प्राण साधना द्वारा साधक वर्तमान को ही पकड़ने का अभ्यास करता है
तीनों कालों में वर्तमान ही प्रधान है , यही भूत और भविष्य में भी व्याप्त है
वर्तमान में रहने वाला भविष्य में भी रहता है, अमर होता है
वर्तमान ब्रह्म हैब्रह्म वर्तमान हैब्रह्म वर्तमान है
हम वर्तमान ब्रह्म की पूजा करें

[ कृपया इस सन्देश के लिए उचित शीर्षक सुझाएँयथा : वर्तमानोपनिषद , वर्तमान ब्रह्म, कालाष्टकम ( क्योकि उक्त सन्देश में आठ पंक्तियाँ है ) या अन्य कोई ]

निर्भय समाज

निहत्थे का बल :जिस चीज को हम अपनी कमजोरी समझते हैं वही हमारी सबसे बड़ी ताकत है हमारे पास जो चीज नहीं है उसे खोने का भय भी नहीं है और निर्भय होना सबसे बड़ी शक्ति है। युद्ध भी वही प्रारम्भ करते हैं जिन्हें भय होता है। जो निर्भय है वह पहले से ही विजयी है।

जिसके
पास बन्दूक है वह अधिक भयभीत है। उसे बन्दूक छिनने का भय है, अनुचित रूप से गोली चल जाने का भय है, बन्दूक जब्त होने का भय है, अभियोजन का भय है इत्यादि इत्यादि.... विचार करें और महसूस करें, क्या उसे भी इतने भय हैं जिसके पास बन्दूक नहीं है ? यह बात धन तथा अन्य साधनों के बारे भी लागू होती है।

भय
ही मृत्यु है निर्भय होना ही अमरत्व है जिसे मृत्यु से भय नहीं, वह अमर है संसाधनों को हथियाने की होड़ लगाने से पहले अपने अमरत्व को पहचानो। तुम अपने अमरत्व को पहचान लोगे तो संसाधन तुम्हारी गुलामी करेंगे, अन्यथा तुम संसाधनों के गुलाम बने रहोगे। साधनसम्पन्न होकर भयग्रस्त रहने से साधनहीन रहकर निर्भय रहना श्रेष्ठतर है। कुछ हासिल करना है तो पहले अभय को हासिल करो; दमन करना है तो पहले अपने भय का दमन करो।शासन करना है तो पहले अपनी छुद्र इच्छाओं और दुष्प्रवृत्तियों को शासित करो।

अतएव
, साधन हीनों ! स्वयं को निर्बल निर्धन समझने वालों ! अपनी निर्भयता की शक्ति को पहचानो; योग अर्थात ऐक्यता की शक्ति को पहचानो और एकजुट हो जाओ आत्मानुसाशित व्यक्ति को किसी अन्य से नियंत्रित होने की आवश्यकता नहीं चन्द भयग्रस्त लोगों से भयभीत होना तुम्हारा भ्रम है। वास्तव में तुम पहले से ही विजयी हो जिन्हें तुम शासक समझते हो वे तुम्हारे सेवक
हैं। जिन्हें तुम शक्तिशाली , साधन संपन्न व दुर्जेय समझकर भय करते हो उनमें से अधिकाँश पहले से ही मरे हुए हैं और जो जीवित हैं वह तुम्हारे ही हितैषी हैं

सुनीति एवं सुरुचि

श्रीमद्भागवत महापुराण , विष्णु पुराण व अन्य पुराणों में ध्रुव की कथा वर्णित है (दिए हुए लिंक से कथा सुन सकते हैं)। राजा उत्तानपाद की दो पत्नियाँ थी जिनका नाम था - सुनीति और सुरुचि राजकुमार ध्रुव जिन्हें सनातन पंथी आज भी ध्रुवतारे के रूप में विद्यमान समझते हैं, सुनीति के पुत्र थे । राजा उत्तानपाद सुरुचि को अधिक प्रेम करते थे और सुनीति की उपेक्षा करते थे। वस्तुत:, सुनीति और सुरुचि केवल पौराणिक कथा में ही नहीं अपितु व्यवहारिक जीवन के हर क्षेत्र में एक दूसरे की सौतें हैं दोनों एक साथ नहीं रह सकतीं। जब हम अपनी रूचि के अनुरूप (सुरुचिपूर्ण = whimsical) अर्थात मनमौजी आचरण करते हैं तो वह श्रेष्ठनीति (सुनीति = good policy) के प्रतिकूल होता है।
सामाजिक व्यवहार, विशेषतया शासन-प्रशासन के परिप्रेक्ष्य में इन दो नामों का निहितार्थ यह है कि, सुनीति (Good policy) पर सुरुचि (Whim) को प्रभावी न होने दिया जाय ।
नियम - कानून भी सुनीतियुक्त होंगे तो कल्याणकारी होंगे, सुरुचियुक्त होंगे तो विनाशकारी होंगे।

स्वर्ग, अमरत्व एवं मोक्ष

अमरत्व एवं मोक्ष सतत चिंतन एवं अभ्यास से प्राप्त होने वाला एक भाव है । भय की निवृत्ति ही अमरत्व है तथा इच्छा की निवृत्ति ही मोक्ष है। अमरत्व एवं मोक्ष को प्राप्त करने के लिए इस शरीर का समाप्त होना आवश्यक नहींअपितु, इसे इस शरीर में ही महसूस किया जा सकता है और अक्षय आनंद में मग्न हुआ जा सकता है। निर्भय, निर्लोभ व सर्वान्तर द्रष्टा (अर्थात "वसुधैव शरीरकं" का साधक ) विश्वात्मा से तारतम्य स्थापित कर चुका होता है और सत्य स्वरुप हो जाता है इसलिए , उसको देहावसान के उपरान्त भी कहीं जाने की आवश्यकता नहीं होती। वह इस शरीर में ही मुक्त हो चुका होता है। वस्तुत:, वही अपनी दिव्य इच्छा शक्ति या कौतुक से संसार की व्यवस्थाएं चलाता है और इस दृष्टि से स्वर्ग भोगता हैवह निर्भय हो चुका होता है , अतएव, अमर होता हैउसकी कोई इच्छा नहीं होती, अतएव, इस जीवन में ही मोक्ष (जो इच्छा से मुक्त हो) पद प्राप्त कर लेता हैदेहावसान के बाद जीव कहाँ जाता है , इसका क्या होता है , उसे इन प्रश्नों के भी झमेले में पड़ने की आवश्यकता नहीं