नवरात्रि के अवसर पर एक पुरानी अधूरी रचना पुन: प्रसारित कर रहा हूँ ।
किशोरावस्था में मुझे एक बार ऐसी अनुभूति हुयी कि, कहीं दूर अन्तरिक्ष में एक दिव्य शक्ति धीरे-धीरे अपना ब्रह्माण्डीय नूपुर झनका रही है और उसी के स्वर तरंगों से समूचे चराचर जगत का सञ्चालन हो रहा है ; यह सारा ब्रह्माण्ड उन्हीं स्वर तरंगों से उत्पन्न हुआ है , उसी से विस्तारित हो रहा है और उसी में लीन भी हो रहा है । उत्पत्ति और लय का क्रम निरंतरित है। इसी भावानुभूति में यह श्लोक स्फुटित हुए थे, जो अधूरी स्मृति के आधार पर यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं । व्याकरण एवं काव्य सम्बन्धी त्रुटियों के सुधार सुधी जनों से सादर एवं साभार आमंत्रित हैं । फिलहाल , टंकड़ सम्बन्धी विशेज्ञता के अभाव में कुछ त्रुटियां प्रत्यक्ष हैं जिनका सुधार किसी कुशल व्यक्ति की सहायता से शीघ्र किया जायगा ।
- डॉ वसिष्ठ नारायण त्रिपाठी
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द्वेषक्लेशहारिनणीमनन्तलोकचारिणीम्मनोविनोदकारिणीं सदामुदाप्रसारिणीम्।
पापतापनाशिनीमज्ञानज्ञाननवर्तिनीं नौमि पादपंकजं सुभक्तश्रेयकारिणीम्॥ १॥
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विभागभागनूपुरंत्रिलोकरागरंजितंसन्चारितम्लयम्प्रियं जगच्चमोहितंकृतम्।
झनन्झनन्झनन्नवीनचेतना प्रवाहितं झकारशक्तिचालितं दधाति यो दधामि तम्॥ २॥
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वेदपाठ नाकृतं न धर्म धारितं मया न योगयज्ञयुक्तिमान्नमामि केवलं सदा।
नमन्नमन्नमन्नमन्निरोध चित्तवृत्ति मे भवेद्देवि देहि मे भवं भयात् तत्पदम्॥ ३॥
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अनामयं निरामयं अरूपमं निरुपमं, शिवं शिवं शिवं शिवे करोति या सदाशिवम् ।
तयाशिवंमयाशिवं सुशब्दशक्तिसाशिवा विभातुपातु नो धियं जगत्शिवाय मे शिवम्॥ ४॥
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118. Disputes relating to ownership and possession
11 years ago
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