Friday, March 19, 2010

न्याय चेतन है, मूर्ति जड़ है

क्षमा करें ! सन्देश समीक्षाधीन है , समीक्षा के पश्चात पुन: प्रकाशित किया जायेगा।

Thursday, March 18, 2010

पञ्चदिक् मधु

छान्दोग्य उपनिषद् में संकेतित मधु विद्या - क्षमा करें, अति गूढ़ एवं अनुभव मूलक होने के कारण छिपाया गया। फ़िलहाल वह मधु , वह मधुकर, वह पुष्प, वह छत्ता और छत्ते का वह आधार सभी सर्वान्तर हैं। वह सर्वान्तर आप हैं, मैं हूँ ।

Wednesday, March 17, 2010

सुनीति एवं सुरुचि - न्यायिक सन्दर्भ में

श्रीमद्भागवत महापुराण , विष्णु पुराण व अन्य पुराणों में ध्रुव की कथा वर्णित है (दिए हुए लिंक से कथा सुन सकते हैं)। राजा उत्तानपाद की दो पत्नियाँ थी जिनका नाम था - सुनीति और सुरुचि राजकुमार ध्रुव जिन्हें सनातन पंथी आज भी ध्रुवतारे के रूप में विद्यमान समझते हैं, सुनीति के पुत्र थे । राजा उत्तानपाद सुरुचि को अधिक प्रेम करते थे और सुनीति की उपेक्षा करते थे। वस्तुत:, सुनीति और सुरुचि केवल पौराणिक कथा में ही नहीं अपितु व्यवहारिक जीवन के हर क्षेत्र में एक दूसरे की सौतें हैं दोनों एक साथ नहीं रह सकतीं। जब हम अपनी रूचि के अनुरूप (सुरुचिपूर्ण = whimsical) अर्थात मनमौजी आचरण करते हैं तो वह श्रेष्ठनीति (सुनीति = good policy) के प्रतिकूल होता है।
सामाजिक व्यवहार, विशेषतया शासन-प्रशासन के परिप्रेक्ष्य में इन दो नामों का निहितार्थ यह है कि, सुनीति (Good policy) पर सुरुचि (Whim) को प्रभावी न होने दिया जाय ।
नियम - कानून एवं निर्णय भी सुनीतियुक्त होंगे तो कल्याणकारी होंगे, सुरुचियुक्त होंगे तो विनाशकारी होंगे। बहुधा देखने में आता है कि हमारे न्यायाधीश भी अपने "न्यायिक संस्था " के स्वरुप से विचलित होकर "व्यक्ति न्यायाधीश " के स्वरुप में अवस्थित हो जाते हैं , फलत: एक ही प्रकार के विवादों में भिन्न न्यायिक निर्णय व आदेश पारित होते हैं । इस प्रवृत्ति से न्यायलय के प्रति न्यायार्थियों की आस्था क्षीण होती है। यह प्रवृत्ति न्यायपालिका में एक आत्मघाती मनोविकार है, आंतरिक शत्रु है



Tuesday, March 16, 2010

नवरात्र की विशेष प्रस्तुति - ब्रह्मांडीय संगीत- संस्कृत पञ्चचामर छन्द में

नवरात्रि के अवसर पर एक पुरानी अधूरी रचना पुन: प्रसारित कर रहा हूँ ।
किशोरावस्था में मुझे एक बार ऐसी अनुभूति हुयी कि, कहीं दूर अन्तरिक्ष में एक दिव्य शक्ति धीरे-धीरे अपना ब्रह्माण्डीय नूपुर झनका रही है और उसी के स्वर तरंगों से समूचे चराचर जगत का सञ्चालन हो रहा है ; यह सारा ब्रह्माण्ड उन्हीं स्वर तरंगों से उत्पन्न हुआ है , उसी से विस्तारित हो रहा है और उसी में लीन भी हो रहा है । उत्पत्ति और लय का क्रम निरंतरित है। इसी भावानुभूति में यह श्लोक स्फुटित हुए थे, जो अधूरी स्मृति के आधार पर यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं । व्याकरण एवं काव्य सम्बन्धी त्रुटियों के सुधार सुधी जनों से सादर एवं साभार आमंत्रित हैं । फिलहाल , टंकड़ सम्बन्धी विशेज्ञता के अभाव में कुछ त्रुटियां प्रत्यक्ष हैं जिनका सुधार किसी कुशल व्यक्ति की सहायता से शीघ्र किया जायगा ।
- डॉ वसिष्ठ नारायण त्रिपाठी
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द्वेषक्लेशहारिनणीमनन्तलोकचारिणीम्मनोविनोदकारिणीं सदामुदाप्रसारिणीम्।
पापतापनाशिनीमज्ञानज्ञाननवर्तिनीं नौमि पादपंकजं सुभक्तश्रेयकारिणीम्॥ १॥ 
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विभागभागनूपुरंत्रिलोकरागरंजितंसन्चारितम्लयम्प्रियं जगच्चमोहितंकृतम्।
झनन्झनन्झनन्नवीनचेतना प्रवाहितं झकारशक्तिचालितं दधाति यो दधामि तम्॥ २॥
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वेदपाठ नाकृतं न धर्म धारितं मया न योगयज्ञयुक्तिमान्नमामि केवलं सदा।
नमन्नमन्नमन्नमन्निरोध चित्तवृत्ति मे भवेद्देवि देहि मे भवं भयात् तत्पदम्॥ ३॥
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अनामयं निरामयं अरूपमं निरुपमं, शिवं शिवं शिवं शिवे करोति या सदाशिवम् ।
तयाशिवंमयाशिवं सुशब्दशक्तिसाशिवा विभातुपातु नो धियं जगत्शिवाय मे शिवम्॥ ४॥
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