Sunday, February 14, 2010

स्वर का सतत चिंतन करें

सब कुछ ब्रह्ममय है, ब्रह्म का ही रूप है।
नादब्रह्म निर्विवाद रूप से सर्वमान्य है।
स्वर ही सृजनकर्ता है, स्वर ही संहारक है
समाज में अधिकांश विवाद स्वर तथा शब्द के सकारात्मक तालमेल होने के कारण से होते हैं।
अतएव, स्वर की उपासना करें, स्वर का सतत चिंतन करें।


एक कलाकार द्वारा गाये हुए इस मधुर गीत का आस्वादन करे:

"स्वर में स्वयं बसें भगवान् ,
स्वर ईश्वर है, ईश्वरीय वरदान।

ब्रह्म सहोदर शब्द कहाए, शब्दों से जब स्वर मिल जाये,
मन वीणा तब पुलकित होकर , करत प्रभु का गान
स्वर में स्वयं बसें भगवान् ॥

जब बसंत ऋतू राग सुनाये, स्वर सुरभित अनुराग लुटाये ,
स्वर साधक के सहज स्वरों से, जागृत हो पाषण।

स्वर में स्वयं बसें भगवान्॥

स्वर चेतन हर हृदय जगाये, स्वर संजीवन अमर बनाए,
स्वर से रहा जो वंचित जग में, वो नर है निष्प्रान।

स्वर में स्वयं बसें भगवान्॥"

विधि सार रूप से अनादि है

हम किसी मत , सिद्धांत या कानून का प्रादुर्भाव किसी समय में और किसी संस्था या व्यक्ति द्वारा किया हुआ जानते हैं। किन्तु, वस्तुत: यह उद्भूत नहीं होता अपितु नवीकृत होता है या इसकी पुनर्प्राप्ति होती है। विधि सार रूप से शाश्वत है । यह पहले भी रही है और सदैव रहेगी। केवल इसका प्रारूप बदलता रहता है।