Tuesday, October 4, 2011

रुद्राष्टाध्यायी, श्रीमद्भागवत व भारतीय संविधान

ब्रह्म के सर्वव्यापकता का चित्रण जिस प्रकार रुद्राष्टाध्यायी के नमकाध्याय में हुआ है वह मुझे जितना सुरुचिपूर्ण और बोधगम्य लगा वैसा अन्यत्र नहीं दिखा. इसे पढने से श्रीमद्भागवत में सर्वान्तर ब्रह्म को निरूपित करने वाले वाक्य, विशेषतया गजेन्द्र मोक्ष का दूसरा श्लोक "यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं या इदं स्वयं..." और अधिक स्पष्ट होने लगे.
भारतीय संविधान की मूल भावना प्रजातंत्र व समाजवाद अर्थात "जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का राज्य" के सन्दर्भ में भी मैं कहने लगा - "सबमें, सबसे, सबके द्वारा, सबकी सत्ता सब स्वयं वही".

Tuesday, August 23, 2011

विधिपुरुष का योगाभ्यास

भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन विधिपुरुष की एक उपचारात्मक यौगिक क्रिया है.

Sunday, August 7, 2011

मित्रदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

श्रावण मास भगवान शिव को समर्पित है जिनकी सर्वोत्तम आराधना रुद्राभिषेक के द्वारा की जाती है. "वेद: शिव: शिवो वेद:" - वेद ही शिव हैं ,शिव ही वेद हैं. शुक्ल यजुर्वेद में रुद्राष्टाध्यायी के रूप में भगवान शिव  का विशद वर्णन है. रुद्राभिषेक करते समय इसी का पाठ करते हैं. इसके  शान्त्यध्याय में  सर्वत्र मित्रता भरी दृष्टि से देखने की भावना एवं कामना अखिल विश्व का कल्याण करने वाली है- 
"ॐ दृते द्रिउंह मा मित्रस्य मा चक्षुसा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम । मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।। -( रुद्राष्टाध्यायी, शुक्ल यजुर्वेद )."
आज पाश्चात्य परंपरानुसार मित्र दिवस है. सबको मित्रदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

Saturday, June 25, 2011

धर्म और कानून एक दूसरे के पूरक हैं

धर्म और कानून एक दूसरे के पूरक हैं। शासक समूची जनता और हर तरह के आचरण को दंड के भय से व्यवस्थित नहीं कर सकता था, इसलिए, मनीषियों ने धर्म- अधर्म, पाप- पुण्य और स्वर्ग- नरक की अवधारणा प्रस्तुत की।

Saturday, June 11, 2011

भ्रष्टाचार की शत प्रतिशत सफाई नहीं हो सकती

भ्रष्टाचार समाज रूपी शरीर में पेट की गन्दगी है, इसकी सफाई आवश्यक हैकिन्तु, इसे पूर्णतया साफ़ नहीं किया जा सकता- जैसे पेट को पूर्णतया मल रहित नहीं किया जा सकता

Friday, June 10, 2011

होशियार, सावधान !

अच्छी बातें सबके लिए सम्माननीय और अनुकरणीय हैं - वे चाहे जिस किसी भी किताब या धर्म ग्रन्थ में लिखी हों। जो अभियान सबके हित में हो उसका समर्थन होना ही चाहिए, वह चाहे किसी भी व्यक्ति, संगठन या पार्टी द्वारा शुरू किया गया हो। भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध उठाई जा रही आवाज को इस आधार पर दरकिनार नहीं किया जा सकता कि उसका पहल किसी विशेष समुदाय के लोगों ने किया या वह किसी विशेष संगठन द्वारा समर्थित है।

"फूट डालो -राज करो" की नीति से हम सबको सावधान रहने की जरुरत है। क्या भ्रष्टाचार पर नियंत्रण और काले धन की देश वापसी से मुसलामानों, ईसाईयों और अन्य मतावलंबियों को फायदा नहीं होगा ? सरकार या कुछ स्वार्थी राजनेता यह कह दें कि, इस मुद्दे के पीछे आर एस एस का हाथ है तो आर एस एस को नापसंद करने वाले भाईयों को क्या इस मुद्दे से अलग हो जाना चाहिए ? अपने देश का धन विदेशों में जमा करने वाले डरपोक चोरों गद्दारों से हमारा कहना है कि हिन्दुस्तान की जनता इतनी नादान नहीं है कि उसमें ऐसे सर्वांगीण हित के अभियान में धर्म के आधार पर फूट डाली जा सके।

Thursday, June 9, 2011

U.P. Annual Law Referenccer

Since few months I was additionally busy in giving a book form to my personal legal notes.

As a hobby, I do regularly read the judicial decisions on all subjects. On insistence of a publisher, I arranged my notes systematically and made it exhaustive so as to make it useful for common legal practitioners. Now it is being published in the form of an annual referencer named as "U.P. Annual Referencer 2010". It has been divided in three main parts : 1. Civil Laws 2. Criminal Laws and 3. Educational and Service Laws. The book contains each and every decision delivered by the Allahabad High Court and Supreme Court relating to Central and U.P. Laws reported in various law reporters in 2010. Base reporters are Allahabad Weekly Cases, Allahabad Criminal Cases, U.P.L.B.E.C, and Allahabad Daily Judgments. Equivalent citations of each of these reports and of AIR, SCC and all other law reports available in Allahabad, have also been given.

Today, after checking and correcting final proof, I am feeling relaxed for few hours !

Next 23 days to be devoted exclusively on The Constitution of India.

-VNT

Tuesday, May 17, 2011

मोक्ष

मोक्ष का तात्पर्य है - इच्छा से मुक्ति । इच्छा ही किसी जीव के जन्म-मृत्यु का कारण है, यही किसी कार्य या वस्तु के आरम्भ और अंत का भी कारण है। जो इससे मुक्त हो गया वह आद्यंत रहित हो जाता है, परम तत्त्व में लीन हो जाता है। ऐसा इस शरीर में रहते हुए हो सकता है । यदि शरीर में रहते हुए नहीं हुआ तो उसके बाद कैसे होगा?

Sunday, May 8, 2011

विज्ञान का आध्यात्मिक अर्थ

तैत्तिरीय उपनिषद् के अनुसार, भृगु को क्रमश: ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुयी। इस क्रम के सम्बन्ध में भृगु वल्ली, पंचम अनुवाक में वर्णित है- "विज्ञानं ब्रह्मेति व्यजानात। विज्ञानाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। विज्ञानेन जातानि जीवन्ति। विज्ञानं प्रत्यभिसंविशन्तीति। " अर्थात, विज्ञान ब्रह्म है ऐसा जाना। क्योंकि, सचमुच में विज्ञान से ही ये प्राणी उत्पन्न होते हैं। उत्पन्न होकर विज्ञान से ही जीवित रहते हैं। विज्ञान में ही प्रत्यावर्तित होकर समाविष्ट होते है।
यहाँ "विज्ञान" शब्द का क्या अर्थ है, यह मुझे स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। (गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित हरिकृष्ण दास गोयन्दका कृत व्याख्या में इसका अर्थ विज्ञान स्वरुप चेतन जीवात्मा से लगाया गया है।)

Saturday, May 7, 2011

निष्ठा और तर्क

तर्क की तर्कसंगत सीमा होनी चाहिए। शास्त्रों में स्थान-स्थान पर अति तर्क से बचने की संस्तुति की गयी है और विशुद्ध ज्ञान रूप परमतत्व को अतर्क्य कहा गया है। कठोपनिषद (१/२/९ ) में यमराज ने नचिकेता की प्रसंशा करते हुए कहा - नैषा तर्केण मतिरापनेया... (ऐसी मति तर्क से नहीं मिल सकती। यह तो तभी उत्पन्न होती है , जब भगवत्कृपा से किसी महापुरुष का संग प्राप्त होता है। ऐसी निष्ठा ही मनुष्य को आत्मज्ञान के लिए प्रयत्न करने में प्रवृत्त करती है। हमें तुम जैसे ही पूछने वाले जिज्ञासु मिला करें)।

Friday, May 6, 2011

तुलसी का जवाब नहीं

विद्यार्थी जीवन में मैंने तुलसी कृत श्री रामचरित मानस एवं भगवद्गीता का अनेक बार पाठ किया था - बिना किसी शोधपरक उद्देश्य के। बाद में क़ानूनी लेखों और निर्णयों में दिए गए उद्धरणों की पुष्टि करने के क्रम में तथा प्रसंगवश अनेक अन्य शास्त्रों यथा- श्रीमद्भागवत, ब्रह्मसूत्र , वृहदारण्यक एवं अन्य एक सौ आठ उपनिषद् इत्यादि का आद्योपांत पाठ कर डाला। स्वाभाविक रूप से इस क्रम में अनेक आवेशात्मक अनुभव भी होते रहे। किन्तु श्रीमद्भागवत पढ़ते समय भी प्राय: जब किसी गूढ़ एवं वेदान्तीय कथानक में तन्मय जाता तो मुझे मानस की समानार्थी चौपाई याद पड़ती और मेरे मुख से स्फुटित हो जाता - "वाह! तुलसी का जवाब नहीं!"

सर्वं खल्विदं ब्रह्म

जो कुछ भी पढ़ता हूँ, मुझे गजेन्द्र मोक्ष के दूसरे श्लोक में समाहित दिखाई देता है- "यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं , यो अस्मात परस्मात्च परस्तं प्रपद्ये स्वयंभुवं" = जिसमें जिससे जिसके द्वारा जिसकी सत्ता जो स्वयं वही.... ।

उपनिषद् एवं ग्राम्य भाषा शैली

बचपन में बुजुर्गों के शब्द एवं शैली मुझे गाँव के स्कूली शिक्षा से ऊपर पहुँचने पर अटपटे और गंवारू लगने लगे । विगत वर्षों में मैंने सभी १०९ उपनिषदों का आद्योपांत पाठ किया । इस दौरान प्राय: मेरी धुंधली स्मृति में बचपन में सुने हुए वे शब्द उभरने लगते और मुझे प्रतीत होता कि गाँव के बुजुर्गों कि शैली औपनिषदिक शैली से काफी मेल खाती थी।

Thursday, May 5, 2011

नटराज स्त्रोत्र

कल से wisdomspeaks.org पर महर्षि पतंजलि कृत "साम्ब नटराज स्त्रोत्र " प्रसारित हो रहा है. बहुत सुन्दर और कर्णप्रिय है. पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों पर महाभाष्य लिखा था। मुझे लगता है, व्याकरण की दृष्टि से भी यह स्त्रोत्र विशुद्ध एवं अतुलनीय होगा। इस स्त्रोत्र का लिंक है: http://www.wisdomspeak.org/mantra/?page_id=58

अक्षय तृतीया

आज अक्षय तृतीया है। अक्षय तृतीया को हमारे गाँव (उत्तर प्रदेश का गोरखपुर जिला) में चींटे को गुड खिलाकर खेत में जाते हैं और कुछ देर फावड़ा चलाकर कृषि कार्य का शुभारम्भ करते हैं- अर्थात इसे उद्यम दिवस के रूप में मनाते हैं। चींटे को गुड खिलाते समय प्रार्थना करते हैं कि हम गुड में चींटे कि भांति उद्यम में लगे रहें, जैसे चींटा गुड को नहीं छोड़ता उसी प्रकार हम उद्यम से विरत न हों। अन्य स्थानों पर अक्षय तृतीया कैसे मनाई जाती है ?

Monday, May 2, 2011

दरिद्र नारायण

जो राजनीतिक दल भारतीय संस्कृति के अनुरक्षण एवं समृद्धि के प्रति प्रतिबद्ध हैं उनकी पकड़ स्वाभाविक रूप से गावों में मजबूत होनी चाहिए, निर्बल और निर्धन जनता में अधिक पैठ होनी चाहिए, उन्हें दरिद्र नारायण की सेवा को प्रमुखता देनी चाहिए। उन्हें श्रीमद्भागवत में उद्धृत श्री भगवान के इस वचन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए कि "..गौवें और अनाथ प्राणी मेरे ही शरीर हैं, इन्हें वे ही मुझसे भिन्न समझते हैं जिनकी विवेकदृष्टि पापों के द्वारा नष्ट हो गयी है और जिन्हें अत्यंत कठोर यातना मिलने वाली है.."

Friday, April 29, 2011

समस्या यह नहीं की ईमानदारी से धनार्जन नहीं किया जा सकता। समस्या यह है कि बेईमानी का रास्ता अपनाने वाले को शीघ्र ही सहयोगी मिल जाते हैं और ईमानदारी की राह चलने वाले से उसके अपने भी बिदकने लगते हैं।

पुनर्जन्म सम्बन्धी प्रमुख धारणाएं

. सनातन धर्म- मरने वाले का जन्म अवश्य होता हैकर्मफल के आधार पर शरीर मिलता है
. जैन - पुनर्जन्म होता है किन्तु, कर्म फल देने वाला कोई इश्वर नहीं हैकर्मानुसार आत्मा उन तत्वों को आकर्षित करता है जो शरीर का निर्माण करते हैं
. बौद्ध- मृत्यु के तुरंत बाद पुनर्जन्म होता हैएक से दूसरे दीपक के जलने की तरह आत्मा शरीर धारण करता रहता है
. थिओसोफ़िकल - पुनर्जन्म होता है और नैतिक स्तर के आधार पर जीव श्रेष्ठ श्रेष्ठतर जीवन धारण करता हैचरमोत्कर्ष दैवी जीवन में होता है
. ईसाई एवं इस्लाम - पुनर्जन्म नहीं होतामृत्यु के बाद को जजमेंट डे तक आत्मा विश्राम/प्रतीक्षा करता हैजजमेंट डे को वह कर्मानुसार स्वर्ग या नरक में स्थायी रूप से भेजा जाता है
. यहूदी - एक शाखा पुनर्जन्म में विश्वास करती है दूसरी नहीं
मेरी धारणा - उक्त सभी सही हैं और सभी को सनातन हिन्दू धर्म ग्रंथों में किसी किसी रूप में वर्णित किया गया है। "अन्ते मति: सा गति:" अथवा "यथा दृष्टि तथा सृष्टि" के अनुसार, जीवन भर के अभ्यास के आधार पर जिसकी जैसी धारणा मृत्यु के समय रहती है उसे वैसी गति प्राप्त होती हैजो परमात्मा से तादात्म्य स्थापित कर लेता है वह मरने के बाद भी कहीं नहीं जाता, यहीं पर सर्व व्यापक परम तत्व में विलीन हो जाता है

Wednesday, April 27, 2011

यतो धर्मस्ततो जय:

वृहदारन्यक उपनिषद (//१४) के अनुसार, धर्म ही सबसे श्रेष्ठ सबका नियंता है जिसके बल पर दुर्बल भी बलवान को जीतने की इच्छा रखता है"। प्रसन्नता की बात है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय का आदर्शवाक्य है -"यतो धर्मस्ततो जय:"।

पूरा पढ़ो, जिस धर्म से सम्बंधित हो कम से कम उसी को ठीक से जान लो

ये तथाकथित विद्वान जो सनातन धर्म की आलोचना करते हैं, निरक्षर से बदतर हैंइन्होने वृक्ष की एक सूखी पत्ती देखी और उसी को वृक्ष कह दिया, एक गन्दी नाली देखी और उसी के आधार पर नगर का चित्रण कर दियाये जिस पंथ से सम्बंधित हैं उसी को पूरी तरह जान लें तो इन्हें अन्य धर्मों में बुराईयाँ नहीं दिखेंगी

Tuesday, April 26, 2011

छुद्र आलोचनाएँ



"ढोल गंवार शूद्र पशु नारी , ये सब ताड़न के अधिकारी ।" क्या तुलसीदास ने केवल इतना ही लिखा है ?
"विभिन्न वर्णों के लिए अलग - अलग दंड।" क्या मनु स्मृति में केवल इतना ही लिखा है ?
यदि मैं भी केवल एक वाक्य या एक अध्याय पकड़ लूँ तो कहूँगा कि मनु ब्राह्मणों के लिए बेहद क्रूर थे। उन्होंने मदिरापान करने पर ब्राह्मण के लिए मृत्यु दंड का प्रावधान किया । और उस मृत्युदंड का तरीका ? - ऐसा ब्रह्मण खौलता हुआ तेल तब तक पिए जब तक उसकी मृत्यु न हो जाय !
मेरी राय में सरकार और शैक्षिक संस्थाएं यदि सामाजिक समरसता के प्रति लेश मात्र भी अपनी जिम्मेदारी समझती हैं, तो प्रत्येक स्तर के विद्यार्थियों को अनिवार्य रूप से निर्वचन के सिद्धांत पढ़ाये जाने चाहिए।

Monday, April 18, 2011

धर्म एवं राजनीति

राजनीति एक अल्पकालिक व्यवस्था है, धार्मिक विश्वास एक दीर्घकालिक राजनीति है। धार्मिक विश्वास और धर्म में अंतर है।

आस्था और व्यवस्था

आस्था से द्रोह करने वाला व्यवस्था का का द्रोही है। आप प्रशासक, जन प्रतिनिधि, न्यायाधीश, मंत्री, प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति हैं - यह एक आस्था है। आस्था के बिना पद, प्रणाली या व्यवस्था का कोई अस्तित्व नहीं। आस्था के बिना किसी सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। आस्था तत्त्व रूप से सदैव विद्यमान रहती है, केवल इसका बाह्य स्वरुप देश- काल के अनुरूप बदलता है, जैसे हम मौसम और फैशन के अनुसार कपड़े बदलते हैं।

Saturday, March 26, 2011

Triangle of Truth, Law and Justice - a case for conflict management

Gandhi ji's experience in Dada Abdulla's case:

( From "My Experiments with Truth")

"The year's stay in Pretoria was a most valuable experience in my life. Here it was that I had opportunities of learning public work and acquired some measure of my capacity for it. Here it was that the religious spirit within me became a living force, and here too I acquired a true knowledge of legal practice. Here I learnt the things that a junior barrister learns in a senior barrister"s chamber, and here I also gained confidence that I should not after all fail as a lawyer. It was likewise here that I learnt the secret of success as a lawyer.

Dada Abdulla's was no small case. The suit was for £40,000.

Arising out of business transactions, it was full of intricacies of accounts. Part of the claim was based on promissory notes, and part on the specific performance of promise to deliver promissory notes. The defence was that the promissory notes were fraudulently taken and lacked sufficient consideration. There were numerous points of fact and law in this intricate case.

Both parties had engaged the best attorneys and counsel. I thus had a fine opportunity of studying their work. The preparation of the plaintiff"s case for the attorney and the sifting of facts in support of his case had been entrusted to me. It was an education to see how much the attorney accepted, and how much he rejected from my preparation, as also to see have much use the counsel made of the brief prepared by the attorney. I saw that this preparation for the case would give me a fair measure of my powers of comprehension and my capacity for marshaling evidence.

I took the keenest interest in the case. Indeed I threw myself into it. I read all the papers pertaining to the transactions. My client was a man of great ability and reposed absolute confidence in me, and this rendered my work easy. I made a fair study of book-keeping. My capacity for translation was improved by having to translate the correspondence, which was for the most part in Gujarati.

Although, as I have said before, I took a keen interest in religious communion and in public work and always gave some of my time to them, they were not then my primary interest. The preparation of the case was my primary interest. Reading of law and looking up law cases, when necessary, had always a prior claim on my time. As a result, I acquired such a grasp of the facts of the case as perhaps was not possessed even by the parties themselves, inasmuch as I had with me the papers of both the parties.

I recalled the late Mr. Pincott"s advice-facts are three-fourths of the law. At a later date it was amply borne out by that famous barrister of South Africa, the late Mr. Leonard. In a certain case in my charge I saw that, though justice was on the side of my client, the law seemed to be against him. In despair I approached Mr. Leonard for help. He also felt that the facts of the case were very strong. He exclaimed, "Gandhi, I have learnt one thing, and it is this, that if we take care of the facts of a case, the law will take care of itself. Let us dive deeper into the facts of this case." With these words he asked me to study the case further and then see him again. On a re-examination of the facts I saw them in an entirely new light, and I also hit upon an old South African case bearing on the point. I was delighted and went to Mr. Leonard and told him everything. "Right," he said, "we shall win the case. Only we must bear in mind which of the judges takes it." When I was making preparation for Dada Abdulla"s case, I had not fully realized this paramount importance of facts. Facts mean truth, and once we adhere to truth, the law comes to our aid naturally."

(But, what ultimately Gandhiji did ? - Kindly see, previous post - "Mediation is the best advocacy")

Mediation is the best advocacy

Gandhi ji's experience at Bar- Dada Abdulla's case:

( From "My Experiments with Truth")

"I saw that the facts of Dada Abdulla"s case made it very strong indeed, and that the law was bound to be on his side. But I also saw that the litigation, if it were parsisted in, would ruin the plaintiff and the defendant, who were relatives and both belonged to the same city. No one knew how long the case might go on. Should it be allowed to continue to be fought out in court, it might go on indefinitely and to no advantage of either party. Both, therefore, desired an immediate termination of the case, if possible.

I approached Tyeb Sheth and requested and advised him to go to arbitration. I recommended him to see his counsel. I suggested to him that if an arbitrator commanding the confidence of both par-ties could be appointed, the case would be quickly finished. The lawyers' fees were so rapidly mounting up that they were enough to doveur all the resources of the clients, big merchants as they were. The case occupied so much of their attention that they had no time left for any other work. In the mean-time mutual ill-will was steadily increasing. I became disgusted with the profession. As lawyers the counsel on both sides were bound to rake up points of law in support of their own clients. I also saw for the first time that the winning party never recovers all the costs incurred. Under the Court Fees Regulation there was a fixed scale of costs to be allowed as between party and party, the actual costs as between attorney and client being very much higher.

This was more than I could bear. I felt that my duty was to befriend both parties and bring them together. I strained every nerve to bring about a compromise. At last Tyeb Sheth agreed. An arbitrator was appointed, the case was argued before him, and Dada Abdulla won.

But that did not satisfy me. If my client were to seek immediate execution of the award, it would be impossible for Tyeb Sheth to meet the whole of the awarded amount, and there was an unwritten law among the Porbandar Memans living in South Africa that death should be preferred to bankruptcy. It was impossible for Tyeb Sheth to pay down the whole sum of about £ 37,000 and costs. He meant to pay not a pie less than the amount, and he did not want to be declared bankrupt. There was only one way, Dada Abdulla should allow him to pay in moderate installments. He was equal to the occasion, and granted Tyeb Sheth instalments spread over a very long period. It was more difficult for me to secure this concession of payment by installments than to get the parties to agree to arbitration. But both were happy over the result, and both rose in the public estimation. My joy was boundless. I had learnt the true practice of law. I had learnt to find out the better side of human nature and to enter men"s hearts. I realized that the true function of a lawyer was to unite parties riven asunder. The lesson was so indelibly burnt into me that a large part of my time during the twenty years of my practice as a lawyer was occupied in bringing about private compromises of hundreds of cases. I lost nothing thereby-not even money, certainly not my soul."

Quoting II part of above statement of Mahatma Gandhi, the Supreme Court of India in SLP (Civil) No. 2896 of 2010 B.S. Krishnamurthi v. B.S. Nagraj decided on 14/1/2011 by Hon. M. Katzu and Hon. Gyansudha Mishra,JJ, referred a case , which is between two brothers, to Bangalore Mediation Center.

Tuesday, March 22, 2011

सत्यमिति - सूत्र ५,६

सूत्र ५- मिथ्या बाहर है, सत्य भीतर और बाहर दोनों जगह हैअतएव , सत्य मिथ्या से अधिक व्यापक है
सूत्र - जो चीज भीतर है वह स्थायी हैबदलाव बाहर वाली चीज में होता हैअतएव, सत्य मिथ्या से अधिक शक्ति शाली है

आस्था एवं व्यवस्था

विश्वास एवं आस्था को दरकिनार करने की सोच आत्मघाती है। क्या लोकतंत्र, संविधान, कानून एवं पूरी राजनैतिक व्यवस्था विश्वास के सिवा किसी अन्य चीज पर आधारित हैं ? आवश्यकता है संतुलित सोच की।

Sunday, March 20, 2011

न्यायाधीश एवं न्यायकर्त्ता

मेरे मस्तिष्क में प्रश्न उठता है - क्या किसी व्यक्ति को न्याय का स्वामी कहना उचित है ? मेरे विचार से- नहीं। न्याय का कोई स्वामी नहीं हो सकता। न्याय परम स्वामी है। न्याय ईश्वर है। किसी को ईश्वर का ईश्वर कहना उचित नहीं।

न्याय करने वाले को "न्यायकर्त्ता" कहना अधिक सटीक लगता है। जिन्हें न्याय करने का दायित्व सौपा जाता है वे "न्यायकर्त्ता" शब्द को सार्थक करें, इतना पर्याप्त है। "न्यायाधीश" कहलाने पर स्वामित्व का बोध होने के कारण स्वेच्छाचारिता की गुंजाईश होना स्वाभाविक है। स्वामी की सार्थकता संपत्ति के साथ है। न्याय पर नियंत्रण एवं मुक़दमे का निस्तारण संपत्ति की तरह से नहीं किया जा सकता।
शब्द एवं नाम का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर प्रभाव होता है। क्या यह उचित नहीं कि, विधायिका आवश्यक कानून बनाकर पदनाम को संशोधित करे और हिंदी - संस्कृत के विद्वान् शब्दकोष में न्यायाधीश के स्थान पर न्यायकर्त्ता शब्द का प्रयोग करें ?

मेरा पेशा और इन्टरनेट गतिविधि

चिप्पी- चिप्पी नयी लिखावट पन्ने बन गए गत्ते ! ६ साल लग गए भारतीय संविधान पर एक पुस्तक पूरी करने में । हिंदी में लिखना होता तो शायद १६ साल लग जाते। एक वार्षिक निर्णय संदर्भिका के लिए ५ महीने का समय तय किया था - ७ महीने लग गए। मुक़दमे की तैय्यारी के लिए कानून पढ़ना ही पड़ता है! अब यहाँ भी कानून की ही बात करूँ तो मैं सामाजिक प्राणी कहलाने लायक नहीं। इसलिए, इन्टरनेट पर अपने पेशे से थोड़ा हट कर लिखता हूँ।

Saturday, March 19, 2011

सत्यमिति

सूत्र - सत्य से सत्य प्रतिष्ठित होता है, मिथ्या से मिथ्या
सूत्र - जो सदैव सत्य बोलता है, वह अनायास ही कुछ कह दे तो सत्य हो जाता है
सूत्र - जो प्रायः मिथ्या बोलता है उसकी कही बात अनायास ही मिथ्या हो जाती है
सूत्र - ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो कभी झूठ बोलता होकिन्तु ऐसा व्यक्ति नहीं मिल सकता जो कभी सत्य बोलता होअतएव , सत्य मिथ्या से अधिक व्यापक है
सूत्र ५-
मिथ्या बाहर है, सत्य भीतर और बाहर दोनों जगह हैअतएव , सत्य मिथ्या से अधिक व्यापक है
सूत्र - जो चीज भीतर है वह स्थायी हैबदलाव बाहर वाली चीज में होता हैअतएव, सत्य मिथ्या से अधिक शक्ति शाली है

(जारी ...अनुभूत प्रयोग फिर कभी ....)

ज्योतिषी जी, यह भी तो कहिये !

फाल्गुन पूर्णिमा के चाँद के प्रभाव के बारे में वैज्ञानिकों एवं ज्योतिषियों द्वारा तमाम नकारात्मक एवं अशुभ भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं। वैज्ञानिकों की तकनीकी एवं प्रायोगिक सीमा है। किन्तु, ज्योतिष का विषय क्षेत्र अधिक विस्तृत है। मैं ज्योतिष का विद्यार्थी नहीं हूँ, ज्योतिष की प्रामाणिकता के बारे में भी कोई दृढ़ राय नहीं रखताइतना जानता हूँ कि ज्योतिष में चन्द्रमा को मन एवं तरल पदार्थों का स्वामी कहा जाता है पूर्णिमा को ये तत्त्व अधिक संवेदनशील हो उठते हैं आज की पूर्णिमा का चाँद सामान्य पूर्णिमा से १६% अधिक बड़ा एवं पृथ्वी के अधिक निकट है। इसी आधार पर प्राकृतिक आपदाओं की भविष्यवाणी की जा रही है।
ज्योतिष के विद्वानों के लेखों के आधार पर मैं सामान्य प्रज्ञा से इतना कहना चाहता हूँ कि यदि चन्द्रमा के विशेष प्रभाव पृथ्वी पर पड़ने वाले हैं, तो जिन -जिन चीजों को वह प्रभावित करता है उन सबमें तीव्र उद्वेलन की प्रबल सम्भावना है। यह केवल नकारात्मक नहीं है जैसा कि अखबारों में भरा हुआ है। मेरा मानना है कि जिस व्यक्ति या वस्तु की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति है उसकी संवेदन शक्ति अधिक बढ़ जाएगी। किन्तु चोरी बेईमानी इत्यादि दुष्प्रवृत्तियाँ कम सक्रिय रहेंगी क्योकि चन्द्रमा अधिक बड़ा और अधिक प्रकाशवान है। सत्ववृत्ति का प्रभाव बढ़ेगा और तमोगुण का ह्रास होगा। रचनाकार श्रेष्ठ रचनाएं करेंगे, न्यायालयों से भावात्मक एवं श्रेष्ठ निर्णय आयेंगे, न्याय कानून पर अधिभावी रहेगा अर्थात अंतरात्मा एवं सद्विवेक पर आधारित निर्णय अधिक आयेंगे, उच्चतम न्यायालय संविधान के अनु० १४२ की शक्तियों का पहले से अधिक प्रयोग करेगा, विधायिका लोक कल्याणकारी एवं चरित्र नियामक कानून बनाएगी, न्यायाधीशों की नियुक्तियों में अन्य योग्यताओं की तुलना में सच्चरित्रता और सत्यनिष्ठा को अधिक महत्व दिया जायेगा, सच्चे लोगों की सच्चाई तथा बेईमानों फरेबियों के झूठ उभरकर सामने आने लगेंगे - इत्यादि इत्यादि। यदि कुछ ध्वंस होगा, तो वह सशक्त नवनिर्माण के लिए ही होगा।
देखना है कि निकट भविष्य में तुलनात्मक रूप से वैज्ञानिकों एवं ज्योतिषियों की डरावनी भविष्यवाणियों तथा विधियोग के उक्त आकलन के अनुरूप क्या घटित होता है और कौन अधिक सही साबित होता है !
मेरा यह आकलन विधियोग के सकारात्मक दृष्टिकोण के मद्देनजर है। मैं अपने ज्योतिषी मित्रों से आग्रह करूँगा कि ज्योतिष की एक शाखा के रूप में विधिक ज्योतिष (Legastrology) को स्थापित करते हुए उक्त संकेतों के परिप्रेक्ष्य में तार्किक शोध करने का प्रयास करें।

चेतन के सपन


किशोर वय में कुछ तुकबन्दिया करता था । कानून के शुष्क रस का ऐसा चस्का लगा कि काव्यात्मक प्रवृत्ति दूर हो गयी। अकस्मात् कुछ आध्यात्मिक एवं परा मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं से कृष्ण जन्माष्टमी,२ सितम्बर २०११ को उस समय "संविधान चालीसा" लिखा जब अयोध्या मामले में निर्णय प्रतीक्षाधीन था। साम्प्रदायिक दंगों की आशंका से पूरा देश विशेषतया, उत्तर भारत भयग्रस्त था और महीने भर सर्वत्र कर्फ्यू जैसा वातावरण हो गया था। मैंने अपने टेबल पर बैठने वाले मित्रों को आश्वस्त किया की कहीं कुछ भी अप्रिय होने वाला नहीं है।
न जाने क्यों आज फिर मन काव्यमय हो रहा है - शायद आज के पूर्ण चन्द्र का प्रभाव है जो सामान्य पूर्णिमा के चन्द्रमा से १६ % अधिक बड़ा है , पृथ्वी के अधिक निकट है और वैज्ञानिकों तथा ज्योतिषियों ने भारी प्राकृतिक आपदा की भविष्यवाणी की है । ज्योतिष में चन्द्रमा को मन का स्वामी कहते हैं - सहज मनोवृत्ति में ज्वार आना स्वाभाविक है। मेरा मन कहता है कि, नव निर्माण की सशक्त भूमिका बन रही है। प्रस्तुत कविता की प्रथम पंक्ति दिन से ही मन में गूंज रही थी, पूरा करने का कोई विचार नहीं था । किन्तु फेस बुक पर कुछ विद्यार्थियों ने मुझे भावुक बनाते हुए कुछ और पंक्तियाँ जोड़ने को बाद्धय कर दिया।

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मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
काँटों की रहन, फूलों की सहन ,
विषधर की चुभन, शीतल चन्दन!...मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
यादों की जलन, आशा की चलन,
तृष्णा की अगन, इर्ष्या की पवन! ..मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
मरू विशाल, नंदन कानन ,
सहज भूमि का भोलापन ! ..मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
सांख्य सृजन, वेदों के नयन,
सपनों के शयन,चेतन के सपन* ! मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
जय प्रशांत शुभ हिंद नमन,
अक्षत अच्युत नील गगन ...!.. मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !"
(जारी ......)
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* सपने वो नहीं जो हम सोते हुए देखते हैं, सपने वो हैं जो हमें सोने नहीं देते - डा० कलाम।



समुद्र मंथन कथा का मुख्य अभिप्राय

श्रीमद्भागवत /१२/४६-४७ में समुद्र मंथन की कथा का माहात्म्य बताते हुए कहा है कि, इसे पढ़ने - सुनने वाले का उद्यम कभी व्यर्थ नहीं जाताइससे पूर्व //१८ में यह भी कह दिया गया है कि, समुद्र मंथन से सबसे पहले विष उत्पन्न हुआ थाअभिप्राय यह है कि, अच्छे उद्देश्य से किये जा रहे उद्यम को प्रारंभिक परिणाम के आधार पर बंद नहीं करना चाहिए

होली एवं न्याय दर्शन - सत्यमिति सिद्धांत

झूठ, आडम्बर, मिथ्याभिमान कितने भी शक्ति शाली हों, जलकर भष्म हो जाते है। केवल सत्य शेष बचता है। होलिका के जलने और प्रहलाद के सुरक्षित रहने का यही अभिप्राय है। यही सत्य का विज्ञान है। इसे मैं "सत्यमिति" ("science of truth" or "mathematics of truth") के रूप में प्रस्तावित करता हूँ। कोशिश करूँगा इस शीर्षक से एक पुस्तक लिखने की।

वादः प्रवदतामहम

वह जो वाद पत्र है, मैं हूँ वह जो प्रतिवादपत्र है, मैं हूँ वह जो बहस कर रहा है, मैं हूँ वह जो न्यायकर्त्ता है, मैं हूँ इन सबसे श्रेष्ठ जो वाद विन्दु है, वह भी मै ही हूँ, जैसा कि गीता के दसवें अध्याय में कहा - "वादः प्रवदतामहम"

(नोट- तकनीकी कारणों से हलंत नहीं लग पा रहा है )

Friday, March 18, 2011

घर तक विश्वविद्यालय

एक माह पूर्व मैंने एक नारा दिया -"डिग्री तुम बांटो, शिक्षा हम बाँटेंगे" और "door Step University" की अवधारणा प्रस्तुत किया । मिश्रित प्रतिक्रियाएं मिलीं। उच्च शिक्षण संस्थाओं के लिए मैंने कहा - जब आपकी कक्षाओं में सैकड़ो में से १०-२० विद्यार्थी ही आते है, तो उतने तो घरों की छतों पर बुलाकार पढ़ाये जा सकते हैं! ऐसा करने से आमजन को भी बड़े विद्वानों को देखने - सुनने का अवसर मिलेगा ! योजना का पहला सफल प्रयोग बसंत पंचमी को मैंने अपने निवास/सामाजिक -विधिक प्रचेतन समिति के कार्यालय के छत पर विधि छात्रों की एक भाषण प्रतियोगिता के साथ किया जिसमे इलाहबाद विश्वविद्यालय के तीन प्रोफेसर उत्साह के साथ शामिल हुए। प्रतियोगिता का विषय था - "मौलिक कर्त्तव्य- महत्व एवं प्रयोज्यता "।
संयोगवश, उक्त सन्देश के दो सप्ताह बाद झारखण्ड के एक विधि महाविद्यालय से मेरे पास एक डाक आई जिसके लिफाफे पर मुझे उस महाविद्यालय का प्रिंसिपल दर्शित करते हुए मेरा पता लिखा था। लिफाफे में नए साल की एक बेहतरीन डायरी थी। मैं उस महाविद्यालय का नाम तक नहीं जानता था। मैंने इन्टरनेट से खोज कर सम्बंधित विश्वविद्यालय के कुलसचिव को इमेल से शिकायत किया- अभी तक कोई उत्तर नहीं मिला। इस तरह की संस्थाओं में दी जा रही शिक्षा के बारे में अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
एक और संयोग कि, इन्टरनेट के जरिये मित्रता स्थापित करने वाले झारखण्ड के ही एक मित्र मेरे "डोर स्टेप यूनिवर्सिटी" के विचार से प्रभावित है और अपने शहर में इसे कार्यान्वित करने को उत्सुक है।

क्या "डोर स्टेप यूनिवर्सिटी" की योजना अव्यावहारिक या असंभव है ?

Friday, March 11, 2011

मंत्र का सन्दर्भयुक्त निर्वचन

मेरे पड़ोस में गृह प्रवेश के अवसर पर राम चरित मानस का अखंड पाठ। सम्पुट मन्त्र - "प्रविसि नगर कीजे सब काजा। हृदय राखि कोसलपुर राजा॥" प्रवेश के सन्दर्भ में प्रथम दृष्टया यह मंत्र सुसंगत लगता है। किन्तु , यह चौपाई तो हनुमानजी के लंका प्रवेश के प्रसंग में कही गयी है और इसमें निहित आशीर्वाद अक्षय कुमार के वध और लंका दहन के रूप में फलीभूत हुआ था ! क्या पंडित जी घर का सादृश्य लंका से नहीं कर रहे ?

Sunday, March 6, 2011

सुर एवं असुर का अर्थ उल्टा है

वाल्मीकीय रामायण ( ४५/३७-३८ ) के अनुसार, वरुण की पुत्री वारूणी (सुरा की अभिमानिनी देवी) को दैत्यों ने ग्रहण नहीं किया इसलिए वे "असुर" कहलाये और सुरा सेवन करने के कारण ही देवता "सुर" कहलाये।

इन शब्दों का अर्थ कब और कैसे उलट गया , मुझे ज्ञात नहीं ।

राजा सगर के ६०,००० पुत्रों का निहितार्थ क्या है ?

पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा सगर के साठ हजार पुत्र थे जो कपिल मुनि के शाप से भस्म हो गए थे । उनकी मुक्ति के लिए उनके वंशज भगीरथ ने तपस्या करके गंगा जी को धरती पर उतारा । वाल्मीकीय रामायण - बालकाण्ड, ३८/१७ के अनुसार, वे सभी साठ हजार पुत्र सगर की एक ही पत्नी "सुमति " से एक ही साथ पैदा हुए थे। सुमति ने एक गर्भपिण्ड को जन्म दिया जिसे फोड़ने से साठ हजार पुत्र निकले। कथा के इस भाग, अर्थात "६०,००० जुड़वां पुत्रों" का निहितार्थ मेरे समझ में नहीं आया !

Thursday, January 27, 2011

मै सबका हूँ

मै सबका हूँ सब मेरे ये धुंध घनेरे क्या जानें,
पल भर के मेहमान बेचारे अपने से उड़ जायेंगे!

Sunday, January 23, 2011

साधन इच्छाशक्ति का अनुगामी है

जो साधन संपन्न हैं उनकी लोक कल्याणी इच्छा सुषुप्त है, जो लोकहित में कुछ करना चाहते हैं उनके पास साधन नहीं है । ऐसे में इच्छाशक्ति ही प्रधान है, साधन उसका अनुगामी है।