Saturday, March 19, 2011

चेतन के सपन


किशोर वय में कुछ तुकबन्दिया करता था । कानून के शुष्क रस का ऐसा चस्का लगा कि काव्यात्मक प्रवृत्ति दूर हो गयी। अकस्मात् कुछ आध्यात्मिक एवं परा मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं से कृष्ण जन्माष्टमी,२ सितम्बर २०११ को उस समय "संविधान चालीसा" लिखा जब अयोध्या मामले में निर्णय प्रतीक्षाधीन था। साम्प्रदायिक दंगों की आशंका से पूरा देश विशेषतया, उत्तर भारत भयग्रस्त था और महीने भर सर्वत्र कर्फ्यू जैसा वातावरण हो गया था। मैंने अपने टेबल पर बैठने वाले मित्रों को आश्वस्त किया की कहीं कुछ भी अप्रिय होने वाला नहीं है।
न जाने क्यों आज फिर मन काव्यमय हो रहा है - शायद आज के पूर्ण चन्द्र का प्रभाव है जो सामान्य पूर्णिमा के चन्द्रमा से १६ % अधिक बड़ा है , पृथ्वी के अधिक निकट है और वैज्ञानिकों तथा ज्योतिषियों ने भारी प्राकृतिक आपदा की भविष्यवाणी की है । ज्योतिष में चन्द्रमा को मन का स्वामी कहते हैं - सहज मनोवृत्ति में ज्वार आना स्वाभाविक है। मेरा मन कहता है कि, नव निर्माण की सशक्त भूमिका बन रही है। प्रस्तुत कविता की प्रथम पंक्ति दिन से ही मन में गूंज रही थी, पूरा करने का कोई विचार नहीं था । किन्तु फेस बुक पर कुछ विद्यार्थियों ने मुझे भावुक बनाते हुए कुछ और पंक्तियाँ जोड़ने को बाद्धय कर दिया।

"
मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
काँटों की रहन, फूलों की सहन ,
विषधर की चुभन, शीतल चन्दन!...मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
यादों की जलन, आशा की चलन,
तृष्णा की अगन, इर्ष्या की पवन! ..मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
मरू विशाल, नंदन कानन ,
सहज भूमि का भोलापन ! ..मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
सांख्य सृजन, वेदों के नयन,
सपनों के शयन,चेतन के सपन* ! मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
जय प्रशांत शुभ हिंद नमन,
अक्षत अच्युत नील गगन ...!.. मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !"
(जारी ......)
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* सपने वो नहीं जो हम सोते हुए देखते हैं, सपने वो हैं जो हमें सोने नहीं देते - डा० कलाम।



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