Saturday, February 6, 2010

वर्तमानोपनिषद


हम वर्तमान को पकड़ लें तो भविष्य को नियंत्रित कर सकते हैं और भूत का शोधन कर सकते हैं
हम वर्तमान को जान लें तो भविष्य एवं भूत का स्वरुप स्पष्ट हो जायेगा

वर्तमान
को जानने से सब कुछ जाना हुआ हो जाता है।

योगी वर्तमान में स्थित रहता है, इसीलिए त्रिकालज्ञ होता है।
ध्यान
तथा प्राण साधना द्वारा साधक वर्तमान को ही पकड़ने का अभ्यास करता है
तीनों कालों में वर्तमान ही प्रधान है , यही भूत और भविष्य में भी व्याप्त है
वर्तमान में रहने वाला भविष्य में भी रहता है, अमर होता है
वर्तमान ब्रह्म हैब्रह्म वर्तमान हैब्रह्म वर्तमान है
हम वर्तमान ब्रह्म की पूजा करें

[ कृपया इस सन्देश के लिए उचित शीर्षक सुझाएँयथा : वर्तमानोपनिषद , वर्तमान ब्रह्म, कालाष्टकम ( क्योकि उक्त सन्देश में आठ पंक्तियाँ है ) या अन्य कोई ]

निर्भय समाज

निहत्थे का बल :जिस चीज को हम अपनी कमजोरी समझते हैं वही हमारी सबसे बड़ी ताकत है हमारे पास जो चीज नहीं है उसे खोने का भय भी नहीं है और निर्भय होना सबसे बड़ी शक्ति है। युद्ध भी वही प्रारम्भ करते हैं जिन्हें भय होता है। जो निर्भय है वह पहले से ही विजयी है।

जिसके
पास बन्दूक है वह अधिक भयभीत है। उसे बन्दूक छिनने का भय है, अनुचित रूप से गोली चल जाने का भय है, बन्दूक जब्त होने का भय है, अभियोजन का भय है इत्यादि इत्यादि.... विचार करें और महसूस करें, क्या उसे भी इतने भय हैं जिसके पास बन्दूक नहीं है ? यह बात धन तथा अन्य साधनों के बारे भी लागू होती है।

भय
ही मृत्यु है निर्भय होना ही अमरत्व है जिसे मृत्यु से भय नहीं, वह अमर है संसाधनों को हथियाने की होड़ लगाने से पहले अपने अमरत्व को पहचानो। तुम अपने अमरत्व को पहचान लोगे तो संसाधन तुम्हारी गुलामी करेंगे, अन्यथा तुम संसाधनों के गुलाम बने रहोगे। साधनसम्पन्न होकर भयग्रस्त रहने से साधनहीन रहकर निर्भय रहना श्रेष्ठतर है। कुछ हासिल करना है तो पहले अभय को हासिल करो; दमन करना है तो पहले अपने भय का दमन करो।शासन करना है तो पहले अपनी छुद्र इच्छाओं और दुष्प्रवृत्तियों को शासित करो।

अतएव
, साधन हीनों ! स्वयं को निर्बल निर्धन समझने वालों ! अपनी निर्भयता की शक्ति को पहचानो; योग अर्थात ऐक्यता की शक्ति को पहचानो और एकजुट हो जाओ आत्मानुसाशित व्यक्ति को किसी अन्य से नियंत्रित होने की आवश्यकता नहीं चन्द भयग्रस्त लोगों से भयभीत होना तुम्हारा भ्रम है। वास्तव में तुम पहले से ही विजयी हो जिन्हें तुम शासक समझते हो वे तुम्हारे सेवक
हैं। जिन्हें तुम शक्तिशाली , साधन संपन्न व दुर्जेय समझकर भय करते हो उनमें से अधिकाँश पहले से ही मरे हुए हैं और जो जीवित हैं वह तुम्हारे ही हितैषी हैं

सुनीति एवं सुरुचि

श्रीमद्भागवत महापुराण , विष्णु पुराण व अन्य पुराणों में ध्रुव की कथा वर्णित है (दिए हुए लिंक से कथा सुन सकते हैं)। राजा उत्तानपाद की दो पत्नियाँ थी जिनका नाम था - सुनीति और सुरुचि राजकुमार ध्रुव जिन्हें सनातन पंथी आज भी ध्रुवतारे के रूप में विद्यमान समझते हैं, सुनीति के पुत्र थे । राजा उत्तानपाद सुरुचि को अधिक प्रेम करते थे और सुनीति की उपेक्षा करते थे। वस्तुत:, सुनीति और सुरुचि केवल पौराणिक कथा में ही नहीं अपितु व्यवहारिक जीवन के हर क्षेत्र में एक दूसरे की सौतें हैं दोनों एक साथ नहीं रह सकतीं। जब हम अपनी रूचि के अनुरूप (सुरुचिपूर्ण = whimsical) अर्थात मनमौजी आचरण करते हैं तो वह श्रेष्ठनीति (सुनीति = good policy) के प्रतिकूल होता है।
सामाजिक व्यवहार, विशेषतया शासन-प्रशासन के परिप्रेक्ष्य में इन दो नामों का निहितार्थ यह है कि, सुनीति (Good policy) पर सुरुचि (Whim) को प्रभावी न होने दिया जाय ।
नियम - कानून भी सुनीतियुक्त होंगे तो कल्याणकारी होंगे, सुरुचियुक्त होंगे तो विनाशकारी होंगे।

स्वर्ग, अमरत्व एवं मोक्ष

अमरत्व एवं मोक्ष सतत चिंतन एवं अभ्यास से प्राप्त होने वाला एक भाव है । भय की निवृत्ति ही अमरत्व है तथा इच्छा की निवृत्ति ही मोक्ष है। अमरत्व एवं मोक्ष को प्राप्त करने के लिए इस शरीर का समाप्त होना आवश्यक नहींअपितु, इसे इस शरीर में ही महसूस किया जा सकता है और अक्षय आनंद में मग्न हुआ जा सकता है। निर्भय, निर्लोभ व सर्वान्तर द्रष्टा (अर्थात "वसुधैव शरीरकं" का साधक ) विश्वात्मा से तारतम्य स्थापित कर चुका होता है और सत्य स्वरुप हो जाता है इसलिए , उसको देहावसान के उपरान्त भी कहीं जाने की आवश्यकता नहीं होती। वह इस शरीर में ही मुक्त हो चुका होता है। वस्तुत:, वही अपनी दिव्य इच्छा शक्ति या कौतुक से संसार की व्यवस्थाएं चलाता है और इस दृष्टि से स्वर्ग भोगता हैवह निर्भय हो चुका होता है , अतएव, अमर होता हैउसकी कोई इच्छा नहीं होती, अतएव, इस जीवन में ही मोक्ष (जो इच्छा से मुक्त हो) पद प्राप्त कर लेता हैदेहावसान के बाद जीव कहाँ जाता है , इसका क्या होता है , उसे इन प्रश्नों के भी झमेले में पड़ने की आवश्यकता नहीं

प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक व्यक्ति सम्माननीय है

हमारी भारतीय सनातन संस्कृति समरसता सामंजस्य पर आधारित है हमारी सभ्यता में कोई भी वस्तु या व्यक्ति उपेक्षणीय नहीं है। यहाँ तक कि हमारे शास्त्रों में झाड़ू को भी पैर से छूने की मनाही है।
कबीर साहब ने दिखावटी पूजा की आलोचना करते हुए फटकार लगाने की रौ में कह दिया था कि, "घर की चाकी कोई पूजे जाकी पीसी खाय" किन्तु, यह यथार्थ नहींहै। हमारे गांवों में चूल्हा ,चक्की, सिल-बट्टा , ओखली-मूसल, हल, बैल इत्यादि सबको पूजने की परंपरा रही है और आज भी है ।

२८. विधियोग सप्तक

विधियोग विधि का मानवीकरण है।
विधियोग समाज का मानवीकरण है।
विधियोग राष्ट्र का मानवीकरण है।
विधियोग विश्व का मानवीकरण है।
विधियोग ब्रह्माण्ड का मानवीकरण है।
विधियोग 'विधियोग' (शब्द) का मानवीकरण है।
विधियोग योग का मानवीकरण है।

अखिल ब्रह्माण्ड योगमय है, योग के अधीन है और नियमबद्ध है।
विधियोग जोड़ने वाली विधि है , विधियों को भी जोड़ने वाली विधि है, इसीलिए यह विधियोग है यह नियम पालन पर विशेष ध्यान देते हुए गमनशील है , इसीलिए यह विधियोग है
वि= विशेष रूप से;
धि= बुद्धि , ध्यान देना ;
यो= जो;
= गमन करना , यात्रा करना ।
यह विधियोग का एक तात्पर्य है