Saturday, March 19, 2011

सत्यमिति

सूत्र - सत्य से सत्य प्रतिष्ठित होता है, मिथ्या से मिथ्या
सूत्र - जो सदैव सत्य बोलता है, वह अनायास ही कुछ कह दे तो सत्य हो जाता है
सूत्र - जो प्रायः मिथ्या बोलता है उसकी कही बात अनायास ही मिथ्या हो जाती है
सूत्र - ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो कभी झूठ बोलता होकिन्तु ऐसा व्यक्ति नहीं मिल सकता जो कभी सत्य बोलता होअतएव , सत्य मिथ्या से अधिक व्यापक है
सूत्र ५-
मिथ्या बाहर है, सत्य भीतर और बाहर दोनों जगह हैअतएव , सत्य मिथ्या से अधिक व्यापक है
सूत्र - जो चीज भीतर है वह स्थायी हैबदलाव बाहर वाली चीज में होता हैअतएव, सत्य मिथ्या से अधिक शक्ति शाली है

(जारी ...अनुभूत प्रयोग फिर कभी ....)

ज्योतिषी जी, यह भी तो कहिये !

फाल्गुन पूर्णिमा के चाँद के प्रभाव के बारे में वैज्ञानिकों एवं ज्योतिषियों द्वारा तमाम नकारात्मक एवं अशुभ भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं। वैज्ञानिकों की तकनीकी एवं प्रायोगिक सीमा है। किन्तु, ज्योतिष का विषय क्षेत्र अधिक विस्तृत है। मैं ज्योतिष का विद्यार्थी नहीं हूँ, ज्योतिष की प्रामाणिकता के बारे में भी कोई दृढ़ राय नहीं रखताइतना जानता हूँ कि ज्योतिष में चन्द्रमा को मन एवं तरल पदार्थों का स्वामी कहा जाता है पूर्णिमा को ये तत्त्व अधिक संवेदनशील हो उठते हैं आज की पूर्णिमा का चाँद सामान्य पूर्णिमा से १६% अधिक बड़ा एवं पृथ्वी के अधिक निकट है। इसी आधार पर प्राकृतिक आपदाओं की भविष्यवाणी की जा रही है।
ज्योतिष के विद्वानों के लेखों के आधार पर मैं सामान्य प्रज्ञा से इतना कहना चाहता हूँ कि यदि चन्द्रमा के विशेष प्रभाव पृथ्वी पर पड़ने वाले हैं, तो जिन -जिन चीजों को वह प्रभावित करता है उन सबमें तीव्र उद्वेलन की प्रबल सम्भावना है। यह केवल नकारात्मक नहीं है जैसा कि अखबारों में भरा हुआ है। मेरा मानना है कि जिस व्यक्ति या वस्तु की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति है उसकी संवेदन शक्ति अधिक बढ़ जाएगी। किन्तु चोरी बेईमानी इत्यादि दुष्प्रवृत्तियाँ कम सक्रिय रहेंगी क्योकि चन्द्रमा अधिक बड़ा और अधिक प्रकाशवान है। सत्ववृत्ति का प्रभाव बढ़ेगा और तमोगुण का ह्रास होगा। रचनाकार श्रेष्ठ रचनाएं करेंगे, न्यायालयों से भावात्मक एवं श्रेष्ठ निर्णय आयेंगे, न्याय कानून पर अधिभावी रहेगा अर्थात अंतरात्मा एवं सद्विवेक पर आधारित निर्णय अधिक आयेंगे, उच्चतम न्यायालय संविधान के अनु० १४२ की शक्तियों का पहले से अधिक प्रयोग करेगा, विधायिका लोक कल्याणकारी एवं चरित्र नियामक कानून बनाएगी, न्यायाधीशों की नियुक्तियों में अन्य योग्यताओं की तुलना में सच्चरित्रता और सत्यनिष्ठा को अधिक महत्व दिया जायेगा, सच्चे लोगों की सच्चाई तथा बेईमानों फरेबियों के झूठ उभरकर सामने आने लगेंगे - इत्यादि इत्यादि। यदि कुछ ध्वंस होगा, तो वह सशक्त नवनिर्माण के लिए ही होगा।
देखना है कि निकट भविष्य में तुलनात्मक रूप से वैज्ञानिकों एवं ज्योतिषियों की डरावनी भविष्यवाणियों तथा विधियोग के उक्त आकलन के अनुरूप क्या घटित होता है और कौन अधिक सही साबित होता है !
मेरा यह आकलन विधियोग के सकारात्मक दृष्टिकोण के मद्देनजर है। मैं अपने ज्योतिषी मित्रों से आग्रह करूँगा कि ज्योतिष की एक शाखा के रूप में विधिक ज्योतिष (Legastrology) को स्थापित करते हुए उक्त संकेतों के परिप्रेक्ष्य में तार्किक शोध करने का प्रयास करें।

चेतन के सपन


किशोर वय में कुछ तुकबन्दिया करता था । कानून के शुष्क रस का ऐसा चस्का लगा कि काव्यात्मक प्रवृत्ति दूर हो गयी। अकस्मात् कुछ आध्यात्मिक एवं परा मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं से कृष्ण जन्माष्टमी,२ सितम्बर २०११ को उस समय "संविधान चालीसा" लिखा जब अयोध्या मामले में निर्णय प्रतीक्षाधीन था। साम्प्रदायिक दंगों की आशंका से पूरा देश विशेषतया, उत्तर भारत भयग्रस्त था और महीने भर सर्वत्र कर्फ्यू जैसा वातावरण हो गया था। मैंने अपने टेबल पर बैठने वाले मित्रों को आश्वस्त किया की कहीं कुछ भी अप्रिय होने वाला नहीं है।
न जाने क्यों आज फिर मन काव्यमय हो रहा है - शायद आज के पूर्ण चन्द्र का प्रभाव है जो सामान्य पूर्णिमा के चन्द्रमा से १६ % अधिक बड़ा है , पृथ्वी के अधिक निकट है और वैज्ञानिकों तथा ज्योतिषियों ने भारी प्राकृतिक आपदा की भविष्यवाणी की है । ज्योतिष में चन्द्रमा को मन का स्वामी कहते हैं - सहज मनोवृत्ति में ज्वार आना स्वाभाविक है। मेरा मन कहता है कि, नव निर्माण की सशक्त भूमिका बन रही है। प्रस्तुत कविता की प्रथम पंक्ति दिन से ही मन में गूंज रही थी, पूरा करने का कोई विचार नहीं था । किन्तु फेस बुक पर कुछ विद्यार्थियों ने मुझे भावुक बनाते हुए कुछ और पंक्तियाँ जोड़ने को बाद्धय कर दिया।

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मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
काँटों की रहन, फूलों की सहन ,
विषधर की चुभन, शीतल चन्दन!...मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
यादों की जलन, आशा की चलन,
तृष्णा की अगन, इर्ष्या की पवन! ..मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
मरू विशाल, नंदन कानन ,
सहज भूमि का भोलापन ! ..मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
सांख्य सृजन, वेदों के नयन,
सपनों के शयन,चेतन के सपन* ! मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !
जय प्रशांत शुभ हिंद नमन,
अक्षत अच्युत नील गगन ...!.. मन, मेरे मन, मेरे मन, मेरे मन !"
(जारी ......)
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* सपने वो नहीं जो हम सोते हुए देखते हैं, सपने वो हैं जो हमें सोने नहीं देते - डा० कलाम।



समुद्र मंथन कथा का मुख्य अभिप्राय

श्रीमद्भागवत /१२/४६-४७ में समुद्र मंथन की कथा का माहात्म्य बताते हुए कहा है कि, इसे पढ़ने - सुनने वाले का उद्यम कभी व्यर्थ नहीं जाताइससे पूर्व //१८ में यह भी कह दिया गया है कि, समुद्र मंथन से सबसे पहले विष उत्पन्न हुआ थाअभिप्राय यह है कि, अच्छे उद्देश्य से किये जा रहे उद्यम को प्रारंभिक परिणाम के आधार पर बंद नहीं करना चाहिए

होली एवं न्याय दर्शन - सत्यमिति सिद्धांत

झूठ, आडम्बर, मिथ्याभिमान कितने भी शक्ति शाली हों, जलकर भष्म हो जाते है। केवल सत्य शेष बचता है। होलिका के जलने और प्रहलाद के सुरक्षित रहने का यही अभिप्राय है। यही सत्य का विज्ञान है। इसे मैं "सत्यमिति" ("science of truth" or "mathematics of truth") के रूप में प्रस्तावित करता हूँ। कोशिश करूँगा इस शीर्षक से एक पुस्तक लिखने की।

वादः प्रवदतामहम

वह जो वाद पत्र है, मैं हूँ वह जो प्रतिवादपत्र है, मैं हूँ वह जो बहस कर रहा है, मैं हूँ वह जो न्यायकर्त्ता है, मैं हूँ इन सबसे श्रेष्ठ जो वाद विन्दु है, वह भी मै ही हूँ, जैसा कि गीता के दसवें अध्याय में कहा - "वादः प्रवदतामहम"

(नोट- तकनीकी कारणों से हलंत नहीं लग पा रहा है )

Friday, March 18, 2011

घर तक विश्वविद्यालय

एक माह पूर्व मैंने एक नारा दिया -"डिग्री तुम बांटो, शिक्षा हम बाँटेंगे" और "door Step University" की अवधारणा प्रस्तुत किया । मिश्रित प्रतिक्रियाएं मिलीं। उच्च शिक्षण संस्थाओं के लिए मैंने कहा - जब आपकी कक्षाओं में सैकड़ो में से १०-२० विद्यार्थी ही आते है, तो उतने तो घरों की छतों पर बुलाकार पढ़ाये जा सकते हैं! ऐसा करने से आमजन को भी बड़े विद्वानों को देखने - सुनने का अवसर मिलेगा ! योजना का पहला सफल प्रयोग बसंत पंचमी को मैंने अपने निवास/सामाजिक -विधिक प्रचेतन समिति के कार्यालय के छत पर विधि छात्रों की एक भाषण प्रतियोगिता के साथ किया जिसमे इलाहबाद विश्वविद्यालय के तीन प्रोफेसर उत्साह के साथ शामिल हुए। प्रतियोगिता का विषय था - "मौलिक कर्त्तव्य- महत्व एवं प्रयोज्यता "।
संयोगवश, उक्त सन्देश के दो सप्ताह बाद झारखण्ड के एक विधि महाविद्यालय से मेरे पास एक डाक आई जिसके लिफाफे पर मुझे उस महाविद्यालय का प्रिंसिपल दर्शित करते हुए मेरा पता लिखा था। लिफाफे में नए साल की एक बेहतरीन डायरी थी। मैं उस महाविद्यालय का नाम तक नहीं जानता था। मैंने इन्टरनेट से खोज कर सम्बंधित विश्वविद्यालय के कुलसचिव को इमेल से शिकायत किया- अभी तक कोई उत्तर नहीं मिला। इस तरह की संस्थाओं में दी जा रही शिक्षा के बारे में अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
एक और संयोग कि, इन्टरनेट के जरिये मित्रता स्थापित करने वाले झारखण्ड के ही एक मित्र मेरे "डोर स्टेप यूनिवर्सिटी" के विचार से प्रभावित है और अपने शहर में इसे कार्यान्वित करने को उत्सुक है।

क्या "डोर स्टेप यूनिवर्सिटी" की योजना अव्यावहारिक या असंभव है ?