Tuesday, December 8, 2009

22. ARE GODS DREAMS OF MEN ?

I came across an excellent article "GODS ARE DREAMS OF MEN: The Story of Darwin, Creationism, Evolution and Law" by Honorable Mr. Justice Yatindra Singh, Judge, Allahabad High Court . This article was published on the official website of Allahabad High Court in the last week of October, 2009. His Lordship has elaborately discussed the legislation and case laws in relation to theory of Darwin including the famous Monkey Trial case (see also, http://www.themonkeytrial.com/). In the context of some of the issues discussed in the article, I would urge that:

1. God is men and men are God - one in all and all in one - "तत्वमसि" . The ultimate thing is smallest as well as the biggest at the same time - "अणोरनीयान महतोमहीयान" and "यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे" .

2. A person dreams for few minutes while sleeping when his mind creates an universe of itself in which there may or may not be the things of awaken life. It can be said that the life is a bigger dream of soul and the universe is even a bigger dream of a greater soul.

3. There may or may not be existence of God but belief in it's existence is extremely desirable in the interest of society.

4. Unless the existence of God is disproved it should be treated as proved, because, the society in general believes in it. One set of the evidences of common belief in the God is the oath taken (in the name of God) by the Honorable Judges and Parliamentarians themselves and oath administered on litigants in the courts.

On the basis of above 3 and 4, may I submit that the believers have - primafacie case, balance of convenience in their favor and apprehension of irreparable loss; and thus they fulfill the conditions for grant of interim injunction restraining the atheists from propagating any adverse ideology that may be injurious to the orderly society !!!

Saturday, December 5, 2009

21. विवाह : दान, याचना व प्रक्रिया


शिव पुराण (इस लिंक/प्रवचन का ट्रैक ९२-९७ ) के अनुसार , देवी पार्वती के तपस्या पूरी होने पर भगवान शिव उनके पास आए दोनों ने एक दूसरे को पति - पत्नी होने का प्रस्ताव तथा स्वीकृति दिया। तब शिव जी ने पार्वती से अपने साथ चलने के लिए कहा। देवी पार्वती ने कहा - पिछले (सती) जन्म के विवाह में उनके पिता ने उनका हाथ तो शिव जी के हाथ में दिया था किंतु प्रक्रिया अर्थात देवता एवं ग्रह पूजा सम्बन्धी त्रुटि रह गई थी इसलिए वह विवाह सम्बन्ध पूर्णतया सफल नहीं रहा और उनका (सती का ) आत्म दाह पूर्वक दुखद अंत हुआ था दुबारा वह भूल हो , इसलिए विवाह सम्बन्धी सभी प्रक्रियाओं , श्रेष्ठजनों का आशीर्वाद ,ग्रह पूजा इत्यादि का सम्यक अनुपालन होना ही चाहिए

देवी
पार्वती ने शिव जी से कहा कि आप मेरे पिता जी के पास आकर उनसे मेरा हाथ मांगिये शिव जी ने कहा कि मांगने से व्यक्ति लघुता को प्राप्त हो जाता है जब देने वाला स्वयं देने का प्रस्ताव करता है तो देने वाला एवं स्वीकार करने वाला दोनों ही श्रेष्ठ समझे जाते हैं। फिलहाल , देवी पार्वती के पिता को इस बात की सूचना देना और उन्हें संतुष्ट तो करना ही था और कन्या के लिए यह कार्य करना शिष्टाचार के अनुरूप नहीं होता, अतएव, इन विशेष परिस्थितियों में देवी पार्वती के दुबारा आग्रह करने पर शिव जी ने इस कार्य को करने का दायित्व अपने ऊपरलिया।

विभिन्न
ऋषियों द्वारा अनेक प्रयास एवं कई चक्र के वार्तालाप के उपरांत देवी पार्वती के पिता राजी हुए। तत्पश्चात उन्होंने शिव जी के पास अपनी पुत्री पार्वती की जन्म पत्रिका के साथ विवाह का प्रस्ताव भेजा।

यह सनातन परम्परा है कि कन्या पक्ष वर पक्ष के पास विवाह का प्रस्ताव लेकर जाता है। वर पक्ष कन्या मांगने नहीं जाता। देने वाला कन्या पक्ष ही है और देने वाला निश्चित ही श्रेष्ठ है, यद्यपि कन्या का पिता अपनी कन्या को अपने से श्रेष्ठतर को ही देता है किंतु भारतीय शिष्टाचार में विनम्रता की पराकाष्ठा है। यहाँ स्वीकार करने वाले को श्रेष्ठ समझा जाता है; यहाँ लेने वाला देने वाले को अनुग्रहीत करता है।

Tuesday, December 1, 2009

२० शासक की पशुपति साधना

( सूत्र संगति - ,,,१२,१४,२० .......)

वह
विधियोगी ही पशुपति है। पशुपति ही सम्राट है । पशुपति पशुओं से द्वेष नहीं करता , उनका पालन नियमन करता है

प्रेरणा श्रोत : शुक्ल यजुर्वेद , रूद्र सूक्त एवं तत्सम दृष्टि युक्त अन्य वैदिक वांग्मय
(नोट : यह सूत्र केवल आत्मसात करने के लिए है, कृपया इस पर टिप्पड़ी या बहस करें )

Monday, November 30, 2009

१९ संस्कृत भाषा की विशेषताएँ

संस्कृत भाषा की विशेषताएँ

१) संस्कृत दुनिया की पहली पुस्तक की भाषा है। इसलिये इसे विश्व की प्रथम भाषा मानने में कहीं किसी संशय की संभावना नहीं है।

२) इसकी सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिद्ध है।

३) सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी होने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है।

४) इसे देवभाषा माना जाता है।

५) संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा भी है अतः इसका नाम संस्कृत है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायिनी और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है।

६) शब्द-रूप - विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक या कुछ ही रूप होते हैं, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं।

७) द्विवचन - सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है।

८) सन्धि - संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। संस्कृत में जब दो शब्द निकट आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है।

९) इसे कम्प्यूटर और कृत्रिम बुद्धि के लिये सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है।

१०) शोध से ऐसा पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।

११) संस्कृत वाक्यों में शब्दों को किसी भी क्रम में रखा जा सकता है। इससे अर्थ का अनर्थ होने की बहुत कम या कोई भी सम्भावना नहीं होती। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि सभी शब्द विभक्ति और वचन के अनुसार होते हैं और क्रम बदलने पर भी सही अर्थ सुरक्षित रहता है। जैसे - अहं गृहं गच्छामि या गच्छामि गृहं अहम् दोनो ही ठीक हैं।

भारत और विश्व के लिए संस्कृत का महत्त्व

  • संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की माता है। इनकी अधिकांश शब्दावली या तो संस्कृत से ली गयी है या संस्कृत से प्रभावित है। पूरे भारत में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन से भारतीय भाषाओं में अधिकाधिक एकरूपता आयेगी जिससे भारतीय एकता बलवती होगी। यदि इच्छा-शक्ति हो तो संस्कृत को हिब्रू" class="mw-redirect">हिब्रू की भाँति पुनः प्रचलित भाषा भी बनाया जा सकता है।
  • हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में हैं।
  • हिन्दुओं के सभी पूजा-पाठ और धार्मिक संस्कार की भाषा संस्कृत ही है।
  • हिन्दुओं, बौद्धों और जैनों के नाम भी संस्कृत पर आधारित होते हैं।
  • भारतीय भाषाओं की तकनीकी शब्दावली भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न की जाती है।
  • संस्कृत, भारत को एकता के सूत्र में बाँधती है।
  • संस्कृत का प्राचीन साहित्य अत्यन्त प्राचीन, विशाल और विविधतापूर्ण है। इसमें अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, और साहित्य का खजाना है। इसके अध्ययन से ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति को बढ़ावा मिलेगा।
  • संस्कृत को कम्प्यूटर के लिये (कृत्रिम बुद्धि के लिये) सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है।


( विकिपीडिया से साभार )


Wednesday, November 25, 2009

१८. विधियोगी का आत्म दर्शन

( कृपया लेख संख्या १४ भी देखें )

विधियोगी
समस्त प्राणियों में अपने को एवं समस्त प्राणियों को अपने में देखता हुआ अनुशासन युक्त होकर सबमें समत्व बुद्धि रखते हुए सबके कल्याण के लिए अपनी योगशक्ति (अर्थात सम्यक अनुशासन ) से विश्व को शासित करेगा।

प्रेरणा श्रोत :-
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥गीता, ६/२९॥

एक ही को अर्थात अपने ही को समस्त प्राणियों में देखना - आत्म साक्षात्कार ( self realization ) एवं सब प्राणियों को एक ही में अर्थात अपने में देखना - ईश्वर साक्षात्कार ( God realization ) है !



Monday, November 16, 2009

17. First Law maker of the world

There is a debate as to who was the first Law maker of the world. In Sanatan Dharma , Manu is commonly referred as first. But, a few scholars say that Manu had reproduced the rules made by Bhrigu. The last verse of Manusmriti itself referres Bhrigu and says that what have been taught in it was told earlier by Bhrigu .
In this regard I would submit my conclusion as under:

1. There are inferences by scholars that many verses in Manusmriti might have been subsequently added to the original script. Even there may have been manipulation by biased scholars with a view to override the religious practices preferred by their rival pandits. Therefore the possibility of addition of one verse at the end of the text can not be ruled out . The text that I have with me is published by “Thakur Prasad Book sellers” who are a popular publishers of Varanasi. There may be some difference in other publications.

2. All the puranas and other epics unanimously refer the manu as first and principal creator of manav shastra or dharm shastra.

3. In sanatan dharma no one is first. There is a cycle of happenings and exploration of knowledge. All the scriptures authored by Badrayan ( = Krishna dvaipayan = Vedvyas ) are compilations of pre-existing knowledge and stories. But, He is known as the author of 18 purans and several other epics. In Geeta, Krishna himself said that he is exploring the pre-existing knowledge and there is nothing new in his teachings.But, Geeta and it’s principles are identified with Krishna. Patanjali was also compiler of the principles of yoga – the practices taught by him were practiced earlier to him - Hiranyagarbh can be referred as original acharya of yoga . But, yoga shastra is identified with Patanjali

4. Similarly manu would have been first compiler of rules of ethical tradition and there may have been many earlier rulers and rishis including Bhrigu who would have made rules according to needs of the time.



Sunday, November 15, 2009

१६. ईश्वर है या नहीं - एक अंतरिम समाधान !

मानव सभ्यता का सबसे बड़ा एवं रहस्यमय विवाद है - ईश्वर का अस्तित्व ! इस विषय पर सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वाधिक गूढ़ समझे जाने वाले ग्रन्थ "ब्रह्मसूत्र" में भी वेदव्यास जी ईश्वर के अनस्तिव के पक्ष में रखे गए "कर्मसूत्र" के तर्कों को निराधार या सतही नहीं साबित कर सके हैं चूँकि उन्हें आस्तिकता की वकालत करनी थी इसलिए, उन्होने आस्तिकता के पक्ष में अधिक प्रभावशाली तर्क प्रस्तुत कियाब्रह्मसूत्र एवं सभी पुराणों के लिखने के बाद भी जब उनका ऊहापोह और उद्वेग शांत नहीं हुआ तो उन्होंने निरपेक्ष विश्वास से परिपूर्ण श्रीमद्भागवत की रचना की और तब उन्हें मानसिक शान्ति मिली यह एक स्वकृत मनोचिकित्सा थी जिसे उन्होंने नारदजी के परामर्श पर किया। ध्यातव्य है कि , नारदजी "भक्तिसूत्र" के रचयिता हैं, अर्थात् निरपेक्ष विश्वासी है। वेदव्यासजी के विचारों में श्रीमद्भागवत की रचना से पूर्व बुद्धि की प्रधानता थी। ब्रह्म या ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिपादन वह तर्क से कर रहे थे । किंतु, तर्क अशांति को आकर्षित करता है और विश्वास शान्ति को । अतएव, उन्हें भक्तिशास्त्र अर्थात् विश्वास आधारित ग्रन्थ श्रीमद्भागवत लिखने के बाद ही चैन मिला।
श्री कृष्ण बहुत बड़े जादूगर एवं मनोचिकित्सक थे उन्होंने अर्जुन के मोह एवं अनिर्णय की मनोचिकित्सा की और इसके लिए ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिपादन किया इतना ही नहीं, सम्मोहन चिकित्सा को अधिक सहज एवं प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने स्वयं को ही ईश्वर कहा गीता उपदेश के अंत तक उन्हें लगा कि युद्ध के लिए अर्जुन का मनोबल अभी भी दृढ़ नही हो सका है, तब उन्होंने कहा कि, - छोड़ो , अब तक जो-जो मार्ग मैंने बताये वे सब भूल जाओ ! सभी धर्मों को छोड़कर तुम केवल मुझमें अपना ध्यान केंद्रित करो ! मैं तुम्हे सभी पापों से बचा लूँगा क्योकि, मैं ईश्वर हूँ ! उन्होंने यह भी कहा कि मैंने जो कुछ तुम्हे बताया यह सब किसी अविश्वासी या ईश्वर निंदक को नहीं बताना ( ध्यातव्य है कि, किसी अविश्वासी या ईश्वर निंदक को बताने की शर्त सभी अथर्वशीर्षों, पुराणों एवं अन्य सनातनी धर्मग्रंथों में प्रावधानित है )।
फिलहाल, ईश्वर के अस्तित्व के प्रश्न
पर कभी भी तो कोई सर्वसम्मत निर्णय हो सका है ही भविष्य में हो सकेगा समाज को इस विवाद के लाभ एवं नुकसान दोनों हुए हैं किंतु लाभ ही अधिक हुआ है - विवाद से भी और उससे अधिक आस्तिकता के समर्थन से। यदि ईश्वर की अवधारणा होती तो तो किसी सामाजिक व्यवस्था कीस्थापना हो पाती और ही मनुष्य जीवन के तनावों का सामना कर पाता।
अतएव, मनोविज्ञान एवं समाज विज्ञान की दृष्टि से एक जनहितकारी प्रस्थापना प्रस्तुत करते हुए मै कहना चाहता हूँ कि:
" ईश्वर है या नहीं, यह मैं नहीं कह सकताकिंतु, यह बात पूरी दृढ़ता से कह सकता हूँ कि, ईश्वर की अवधारणा सर्वथा समाज के हित में है।"

पुनश्च, प्रथम दृष्टया, आस्तिकता का पक्ष काफी प्रबल है । सुविधा का संतुलन एवं विद्वानों का बहुमत भी आस्तिकता के पक्ष में ही है । इसके विरोधी धारणा के प्रसार से समाज की एवं मानव सभ्यता की अपूरणीय क्षति होगी। इस प्रकार, प्रस्तुत वाद में अन्तरिम निषेधाज्ञा जारी करने के लिए सभी मूलभूत शर्तें एवं परिस्थितियां विद्यमान हैं
अतएव, जनता जनार्दन एवं विद्वत समाज से मेरा निवेदन है कि - उक्त विवाद के लम्बित रहने तक ईश्वर के अस्तित्व को मान्यता दी जाय अर्थात् जब तक उसे पूर्णतया असिद्ध नहीं कर दिया जाता तब तक उसके अस्तित्व को स्वीकार किया जाय और अन्यथा कोई बात प्रचारित करके भ्रम फैलाने से गैर विश्वासियों को रोका जाय।"

Sunday, November 8, 2009

१५. धन को रोकना धन का अपमान है

लक्ष्मी चंचला होती है, यह इसका सहज स्वभाव है। इसे बंदी बनाकर - इसके प्रवाह को रोककर इसका अपमान करें।इसे अतिथि समझ कर इसका स्वागत करें, इसके सान्निध्य का लाभ उठायें और इसके अगले पड़ाव के लिए किसी अन्य सुपात्र अतिथिसेवी की ओर जाने के लिए इसका मार्ग दर्शन करें।जहाँ अतिथि सत्कार होता है वहां अतिथि आते ही रहते हैं। लक्ष्मी का सत्कार यदि इस दृष्टि से होगा तो वह प्रसन्न रहेगी और आती ही रहेगी ।सर्वोत्तम अर्थ व्यवस्था वह है जिसमें धन का प्रवाह न रुकने पाए।
धन का आदर्श सम्मान या उपयोग इसे किसी अन्य सुपात्र को दान करने में है -
"
सर्वस दान दीन्ह सब काहूजिन्ह पावा राखा नहिं ताहू॥"
यद्यपि यह उक्ति अति उत्साह (राम जन्म ) के प्रसंग में है, किंतु सामान्य व्यवहार के लिए भी अनुकरणीय है
रामायण में तीन प्रकार की प्रवृत्तियां परिलक्षित होती हैं : एक देने की - मिथिला की प्रवृत्ति , दूसरी देने की भी और लेने की भी - अयोध्या की प्रवृत्ति , तीसरी केवल लेने की - लंका की प्रवृत्ति। विधियोग की कसौटी पर अर्थात् संतुलन के दृष्टिकोण से अयोध्या की प्रवृत्ति को उत्तम कहना चाहिए।

Friday, October 30, 2009

१४. विधियोग - शास्त्र संकेत


राजा
/शासक को योगी होना चाहिए :
पतंजलि ने कहा -
योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: योगसूत्रम, १/२॥ अर्थात् मन की वृत्तियों का निरोध ही योग है
शुक्राचार्य, जिनको योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी भगवद्गीता के दशवें अध्याय मे 'कवीनामुशना कवि:' कहते हुए सर्वश्रेष्ठ नीतिकार कहा , कहते हैं -
एकस्यैव ही योअशक्तो मनस: संनिवर्हने
महीं सागर पर्यन्ताम कथं ह्यवजेश्यति शुक्रनीति : १/१००
अर्थात् जो केवल अपने मन को ही शासित नहीं कर सकता, वह समुद्रपर्यंत फैली इस
धरती का शासन कैसे कर सकता है ?
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को योगी होने का ही उपदेश दिया उन्होंने कहा ,योगी तपस्वी से भी बड़ा है ,ज्ञानी से भी बड़ा है और कर्मसाधक से भी बड़ा है ; अतएव , हे अर्जुन, योगी बनो :
"
तपस्विभ्योअधिको योगी ,
ज्ञानिभ्यो अपि मतोअधिक:
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी
तस्माद्योगी भवार्जुन "श्रीमद्भागवद्गीता , ७/४६
संजय ने महाभारत के परिणाम का आकलन करते हुए गीता के अंत में कहा - विजय वहीं होगी जिधर योगेश्वर हैं :
"
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम श्रीमद्भागवद्गीता , १८/७८

वैश्वीकरण एवं अंतरजाल (इन्टरनेट ) के द्वारा सांस्कृतिक एवं भौगोलिक अलगाव भी निरंतर कम हो रहा है। वैश्विक राज्य व्यवस्था आने वाली है किंतु, इसका संचालन कोई भोगवादी नहीं अपितु, महा योगपुरुष ही कर सकेगा।

( कृपया लेख संख्या १८ भी देखें )

Saturday, October 24, 2009

१३. ब्रह्माण्ड गीत

किशोरावस्था में मुझे एक बार ऐसी अनुभूति हुयी कि, कहीं दूर अन्तरिक्ष में एक दिव्य शक्ति धीरे-धीरे अपना ब्रह्माण्डीय नूपुर झनका रही है और उसी के स्वर तरंगों से समूचे चराचर जगत का सञ्चालन हो रहा है ; यह सारा ब्रह्माण्ड उन्हीं स्वर तरंगों से उत्पन्न हुआ है , उसी से विस्तारित हो रहा है और उसी में लीन भी हो रहा है । उत्पत्ति और लय का क्रम निरंतरित है। इसी भावानुभूति में यह श्लोक स्फुटित हुए थे, जो अधूरी स्मृति के आधार पर यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं । व्याकरण एवं काव्य सम्बन्धी त्रुटियों के सुधार सुधी जनों से सादर एवं साभार आमंत्रित हैं । फिलहाल , टंकड़ सम्बन्धी विशेज्ञता के अभाव में कुछ त्रुटियां प्रत्यक्ष हैं जिनका सुधार किसी कुशल व्यक्ति की सहायता से शीघ्र किया जायगा ।
- डॉ वसिष्ठ नारायण त्रिपाठी
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द्वेषक्लेशहारिनीमनन्तलोकचारिनीम्मनोविनोदकारिनीम् सदामुदाप्रसारिनीम
पापतापनाशिनीमग्यानग्यानवर्तिनीम् नौमि पादपंकजं सुभक्तश्रेयकारिनीम॥ १॥

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विभागभागनूपुरमत्रिलोकरागरंजितमसन्चारितम्लयम्प्रियम
जगच्चमोहितंकृतम्।
झनन्झनन्झनन्नवीनचेतना प्रवाहितं झकारशक्तिचालितम दधाति यो दधामि तम्॥ २॥
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वेदपाठ
कृतं धर्म धारितं मया योगयज्ञयुक्तिमान्नमामि केवलं सदा।
नमन्नमन्नमन्नमन्निरोध चित्तवृत्ति मे भवेद्देवि देहि मे भवं भयात् तत्पदम ३॥
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अनामयं
निरामयं अरूपमं निरुपमं, शिवं शिवं शिवं शिवे करोति या सदाशिवम्
तयाशिवंमयाशिवं सुशब्दशक्तिसाशिवा विभातुपातु नो धियं जगत्शिवाय मे शिवम्॥ ४॥

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12. Eligibility to attain and sustain the power

Being free from malice is the first eligibility to attain and sustain the power. We can learn this from Durga Saptshatee which is chanted to please the Goddess of Power. Chanting of the Argala strotram is a pre-requisite for chanting the main Saptashatee, and in Argala strotram prayer for elimination of malice has been repeated 22 times. Argala means - fetter or bolt of the door. Procedure of chanting Argala strotram is prescribed to open the door of the Power.
Most of worshipers who chant the verses of Durga Saptashatee, necessarily chant the Argala strotram. One of the prayers in this strotra stands for elimination of malice. The verse is:
"रूपं देहि , जयं देहि , यशो देहि , द्विषो जहि .” This prayer has been repeated 21 times (verses 3 to 23).
The dominant idea and object in the shakti pooja is to attain power and victory Commonly, it is interpreted that ‘
द्विषो जहि ’ means elimination of enemies or those who are malicious to me / the worshiper. Further, this interpretation is natural for a human mind while worshiping and meditating for attaining the power. But, I think, this interpretation is wrong and dangerous to worshiper himself because, when he is thinking about elimination of some others, he himself is malicious. Neither there is any word in this verse nor is there any indication by context, showing that user of the द्विषो जहि weapon is excluded from it’s target area. Wordings are simple and clear but psychologically, there would be hardly any likelihood that the worshiper would think so in the zeal of attaining the power. To my mind ‘द्विषो जहि ’ in the context of persons, simply means - ‘ O devi ! eliminate malicious deeds’ and in the context of thought process, thought vibrations and social relations it means elimination of hostility. This point is more explicit in verse 13 of the same strotra where it is prayed that:
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकै:, रूपं देहि , जयं देहि , यशो देहि , द्विषो जहि .”
Here,
विधेहि द्विषतां नाशं is also commonly interpreted in same manner and it may sound like praying for elimination of those who are thinking maliciously against the worshiper But, the user/worshiper also is not beyond the range of this weapon It simply means that ‘O Devi, provide for elimination of those who are thinking and acting maliciously’ I would submit my conclusion in hindi language on both prayers thus- "हे देवि ! द्वेष का नाश करो, द्वेष युक्त कर्मों का नाश करो तथा द्वेष करने वालों का नाश करो और इन सबके विनाश हेतु उच्च शक्ति से युक्त विधान करो।" Interpreting otherwise would be twisting the simple words that would not be free from risk in shakti upasna.
Thus first eligibility criteria for Devi upasna is that a person must be clean hearted and free from malice. It is not only prescribed but has been reminded and warned 22 times at the door (argala) itself.
Application of above prayer to Law and administration : I have tried to submit in above lines that, if the worshiper is not clean hearted and malice free, then he is asking for destruction of himself. Now, the main object of Devi pooja is to obtain power, strength and energy. When a person is granted power to do something, it is presupposed that he will use the power without malice. A malicious action is liable to be set aside. By
द्विषो जहि we pray for nullification of malicious actions and hostility, and by विधेहि द्विषतां नाशं we pray for making provisions for destruction of those who would be thinking and acting maliciously. Thus, the power can not stand with malice. If an authority has acted maliciously, the action will be quashed or nullified and if he continuously does so, he is making arrangement for destruction of his power as well as himself . It is also significant that in the argala strotra the prayer ‘द्विषो जहि’ has occurred 21 times the prayer विधेहि द्विषतां नाशं has occurred once in verse 13 i.e. in the middle of verses 3 to 23. The frequency of prayers signifies that the former is indicative of many malicious actions of a person and the later is indicative of that person. The first eligibility criteria for having power is that a person must be clean hearted and free from malice. It is not only prescribed but has been reminded and warned 22 times at the door (argala) of the house of the power.
Let us be clean hearted and free from malice before attaining and exercising the power.

Tuesday, October 6, 2009

11. मोक्ष भी माया है

बन्धोस्ति मोक्षोस्ति ब्रह्मैवास्ति निरामयम
नैकमस्ति न द्वित्वं सत्चित्कार विज्रिम्भते

तो बंधन सत्य है , मोक्ष ही सत्य है। अपितु, बंधन और मोक्ष सभी कुछ ब्रह्ममय है। द्वैत और अद्वैत दोनों भ्रमात्मक हैं। सर्वत्र केवल सत्चिदानन्द ब्रह्म व्याप्त है ।
- (स्कन्द पुराण , भगवद्गीता माहात्म्य )

सुप्तप्रबोधयो: संधावात्मनो गतिमात्मद्रिक
पश्यन्बंधंच मोक्षं माया मात्रं वस्तुत: ॥
आत्म दर्शी साधक सुषुप्ति और जागरण की संधि में अपने स्वरुप का अनुभव करे और बंधन तथा मोक्ष दोनों ही माया केवल माया हैं , वस्तुत: कुछ नहीं - ऐसा समझे - (श्रीमदभागवत ७/१३/५ )