उपलब्द्ध १०९ उपनिषदों में से एक रूद्र हृदयोपनिषद है । यह उपनिषद् परमात्मा शिव को केंद्र में रखकर समस्तदेवों में शिव के ही व्याप्त होने की बात समझाते हुए वहुत ही तार्किक रूप से पंथ समन्वय करता है।इस उपनिषद् के मुख्य अंशों का हिंदी अनुवाद आज महाशिवरात्रि के अवसर पर यहाँ प्रस्तुत है :
शुक देव जी के प्रश्न पर व्यास जी कहते हैं -
भगवान रूद्र सब देवों में निवास करते हैं।
जो गोविन्द को नमस्कार करते हैं उनका नमस्कार भगवान शंकर तक स्वयं ही पहुँच जाता है। जो भगवान विष्णुकी पूजा करते है वे मानों वृषध्वज की ही पूजा करते है।
जो भगवान रूद्र से द्वेष करने वाले है, वे जनार्दन प्रभु के प्रिय कभी नहीं हो सकते।* जो रूद्र के ज्ञाता नहीं हैं, वे केशव के भी ज्ञाता नहीं हो सकते। रूद्र ही जीव के प्रवर्तक बीज हैं और बीज की योनि रूप जनार्दन हैं।
जो रूद्र हैं वही ब्रह्मा हैं, जो ब्रह्मा हैं वही अग्नि हैं। यह अग्नि-सोमात्मक जगत भी रूद्र ही है। सृष्टि में जितने प्राणी पुल्लिंग रूप से हैं वे सभी रूद्र हैं तथा जितने स्त्रीलिंगात्मक देहधारी हैं वे उमा हैं। अव्यक्त संसार रूद्र का रूप और व्यक्त संसार भगवती उमा का रूप है। जो उमा और शंकर के इस योग को जानता है वह योगी विष्णु कहलाता है। जो विष्णु को नमस्कार करते हैं वे आत्मा , परमात्मा तथा अंतरात्मा अर्थात त्रिविध आत्मा के ज्ञाता होकर परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।
सब प्राणियों के आत्मा विष्णु हैं, अंतरात्मा ब्रह्मा हैं और परमात्मा महेश्वर हैं।
कार्य रूप विष्णु, क्रिया रूप ब्रह्मा और कारण रूप रूद्र हैं। इस प्रकार भगवन रूद्र ने ही प्रयोजन के अनुसार अपने तीन रूप धारण किये हैं। जो ज्ञानी रूद्र के नाम का जप करता है वह सभी देवताओं के नाम के जप का फल पाकर सब पापों से छूट जाता है।
प्रार्थना -
रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नम:।
रुद्रो ब्रह्मा उमा वाणी तस्मै तस्यै नमो नम:।
रुद्रो विष्णुरुमा लक्ष्मी तस्मै तस्यै नमो नम:।
रुद्रो सूर्य उमा छाया तस्मै तस्यै नमो नम:।
रुद्रो सोम उमा तारा तस्मै तस्यै नमो नम:।
रुद्रो दिवा उमा रात्रिस्तस्मै तस्यै नमो नम:।
रुद्रो यज्ञ उमा वेदिस्तस्मै तस्यै नमो नम:।
रुद्रो वह्निरुमा स्वाहा तस्मै तस्यै नमो नम:।
रुद्रो वेद उमा शास्त्रं तस्मै तस्यै नमो नम:।
रुद्रो वृक्ष उमा वल्ली तस्मै तस्यै नमो नम:।
रुद्रो गंध उमा पुष्पं तस्मै तस्यै नमो नम:।
रूद्र: अर्थ अक्षर: सोमा तस्मै तस्यै नमो नम:।
रुद्रो लिंगमुमा पीठं तस्मै तस्यै नमो नम:।
सर्वदेवात्मकं रुद्रं नमस्कुर्यात पृथक पृथक।
एभिर्मन्त्रपदैरेव नमस्यामीश पार्वती।
यत्र यत्र भवेत् सार्धमिमं मंत्रमुदीरयेत ।
ब्रह्महा जलमध्ये तु सर्व पापै: प्रमुच्यते।।
उस ब्रह्म को जो जान लेता है वह सब कुछ का ज्ञाता हो जाता है क्योकि उससे भिन्न कुछ है ही नहीं। यह सब उसी का रूप है।
इस शरीर रूपी वृक्ष में जीव और ईश्वर रूप दो पक्षी रहते है। इनमें जीव रूप पक्षी स्वकृत कर्मों का फल भोगता है परन्तु ईश्वर उसके कर्मफल भोग के साक्षी स्वरुप प्रकाशित रहता है, वह कर्म का फल नहीं भोगता । वस्तुत:, मायाके द्वारा ही जीव और ईश्वर के भेद की कल्पना हुई है। यथार्थ में तो चिन्मय जीव स्वयं ही साक्षात् ईश्वर है।चिदाकारता से कोई भेद नहीं हो सकता। भेद दृष्टि जड़ता से उत्पन्न होती है। ऋषिगण परमात्मा मैं ही हूँ, ऐसा अनुभव करके शोक से छूट जाते हैं। जो सिद्ध पुरुष आत्मा के स्वरुप का ऐसा ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं, वे पूर्णता को प्राप्त है और कहीं आते- जाते नहीं। जैसे परिपूर्ण आकाश कहीं जाता नहीं, वैसे ही आत्म तत्त्व का ज्ञाता महात्मा भी कहीं नहीं जाता है। जो उस परब्रह्म का ज्ञाता है वह सच्चिदानन्द रूप में स्थित होकर स्वयं ब्रह्म हो जाता है।
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* शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहि सपनेहु नहिं पावा॥ (मानस)
118. Disputes relating to ownership and possession
11 years ago
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