Wednesday, March 17, 2010

सुनीति एवं सुरुचि - न्यायिक सन्दर्भ में

श्रीमद्भागवत महापुराण , विष्णु पुराण व अन्य पुराणों में ध्रुव की कथा वर्णित है (दिए हुए लिंक से कथा सुन सकते हैं)। राजा उत्तानपाद की दो पत्नियाँ थी जिनका नाम था - सुनीति और सुरुचि राजकुमार ध्रुव जिन्हें सनातन पंथी आज भी ध्रुवतारे के रूप में विद्यमान समझते हैं, सुनीति के पुत्र थे । राजा उत्तानपाद सुरुचि को अधिक प्रेम करते थे और सुनीति की उपेक्षा करते थे। वस्तुत:, सुनीति और सुरुचि केवल पौराणिक कथा में ही नहीं अपितु व्यवहारिक जीवन के हर क्षेत्र में एक दूसरे की सौतें हैं दोनों एक साथ नहीं रह सकतीं। जब हम अपनी रूचि के अनुरूप (सुरुचिपूर्ण = whimsical) अर्थात मनमौजी आचरण करते हैं तो वह श्रेष्ठनीति (सुनीति = good policy) के प्रतिकूल होता है।
सामाजिक व्यवहार, विशेषतया शासन-प्रशासन के परिप्रेक्ष्य में इन दो नामों का निहितार्थ यह है कि, सुनीति (Good policy) पर सुरुचि (Whim) को प्रभावी न होने दिया जाय ।
नियम - कानून एवं निर्णय भी सुनीतियुक्त होंगे तो कल्याणकारी होंगे, सुरुचियुक्त होंगे तो विनाशकारी होंगे। बहुधा देखने में आता है कि हमारे न्यायाधीश भी अपने "न्यायिक संस्था " के स्वरुप से विचलित होकर "व्यक्ति न्यायाधीश " के स्वरुप में अवस्थित हो जाते हैं , फलत: एक ही प्रकार के विवादों में भिन्न न्यायिक निर्णय व आदेश पारित होते हैं । इस प्रवृत्ति से न्यायलय के प्रति न्यायार्थियों की आस्था क्षीण होती है। यह प्रवृत्ति न्यायपालिका में एक आत्मघाती मनोविकार है, आंतरिक शत्रु है



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